सदाबहार अभिनेता दिलीप कुमार नहीं रहे। उन्होंने 98 साल की उम्र में आखिरी सांस ली। दिलीप कुमार ने सिनेमाई पर्दे पर तमाम किरदारों को जितनी संजीदगी से जिया, सियासत के रास्ते भी उतने ही संभल कर चले। सियासी अखाड़े में उनके गिने-चुने मित्र थे। इस फेरहिस्त में पंडित नेहरू से लेकर शरद पवार और बाल ठाकरे का नाम शामिल है। दिलीप कुमार की फिल्मों में खासकर मध्यम वर्ग की आकांक्षाओं-अपेक्षाओं को जिस तरीके से दिखाया जा रहा था, पंडित नेहरू उससे खासा प्रभावित थे।
दिलीप कुमार से मिलने पहुंच गए सेट पर: साल 1959 में दिलीप कुमार मद्रास (अब चेन्नई) में अपनी फिल्म ‘पैगाम’ की शूटिंग कर रहे थे। इसी दौरान पंडित जवाहरलाल नेहरू एक आधिकारिक दौरे पर वहां पहुंचे। एक दिन अचानक वे दिलीप कुमार से मिलने सीधे फिल्म के सेट पर पहुंच गए। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक राशिद किदवई अपनी किताब ‘नेता अभिनेता: बॉलीवुड स्टार पावर इन इंडियन पॉलिटिक्स’ में लिखते हैं कि पंडित नेहरू ने दिलीप कुमार के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘यूसुफ, मैंने सुना कि आप यहां शूटिंग कर रहे हैं तो मैं आपसे मिलने चला आया…।’
दिलीप कुमार ने मांगी पंडित नेहरू की मदद: इस मुलाकात के साल भर बाद ही एक ऐसा वाकया हुआ जब दिलीप कुमार को पंडित नेहरू की मदद मांगनी पड़ी। दरअसल, उनकी फिल्म ‘गंगा-जमुना’ सेंसर बोर्ड में अटकी हुई थी और इससे मंजूरी नहीं मिल रही थी। लंबे इंतजार के बाद आखिरकार दिलीप कुमार ने पंडित नेहरू को इस बारे में बताया। इसके बाद फिल्म को एक झटके में ही मंजूरी मिल गई।
अब बारी पंडित नेहरू की थी: अब मौका पंडित नेहरू का था। साल 1962 में वीके कृष्ण मेनन मुंबई नॉर्थ से कांग्रेस के टिकट पर चुनावी अखाड़े में उतरे। उनके मुकाबले समाजवादी विचारधारा के दिग्गज नेता आचार्य जेबी कृपलानी थे। मुकाबला कठिन लग रहा था। ऐसे में प्रधानमंत्री नेहरू को दिलीप कुमार याद आए और उन्हें फोन घुमा दिया और मेनन के प्रचार में मदद मांगी। यह पहला मौका था जब दिलीप कुमार किसी राजनेता के लिए चुनाव प्रचार में उतरे थे।
बाल ठाकरे से थी जिगरी दोस्ती: दिलीप कुमार भले कांग्रेस के करीब रहे हों, लेकिन शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे से उनकी जिगरी दोस्ती थी। दोनों की दोस्ती की शुरुआत शिवसेना की स्थापना से बहुत पहले की थी। राशिद किदवई लिखते हैं कि बाल ठाकरे की पत्नी मीना ताई भी दिलीप कुमार को पसंद करते थीं। दिलीप कुमार अक्सर उनसे मिलने जाते थे तो ताई उनका पसंदीदा खाना बनाती थीं।
रिश्ते में आ गई खटास: हालांकि साल 1998-99 के दौरान दोनों के रिश्ते में थोड़ी तल्खी आ गई, इसकी वजह एक पुरस्कार था। दरअसल, पाकिस्तान ने दिलीप कुमार को अपने यहां का सबसे बड़ा नागरिक पुरस्कार निशान-ए-इम्तियाज देने की घोषणा कर दी। दिलीप कुमार यह पुरस्कार लेने पाकिस्तान जाने वाले थे। ठाकरे ने इसका विरोध किया और पुरस्कार लेने से मना किया। दिलीप कुमार बेहद पसोपेश में थे। उन्हें सबसे ज्यादा तकलीफ इस बात की थी कि पुरस्कार लेने का विरोध और उनकी देशभक्ति पर शक एक ऐसा शख्स कर रहा है जो 3 दशकों से उनका दोस्त है।
मांगी वाजपेयी की मदद: इसके बाद दिलीप कुमार ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से सुझाव मांगा। वाजपेयी ने उन्हें बाल ठाकरे की बातों को दरकिनार कर देने को कहा। बकौल किदवई, वाजपेयी ने कहा कि दिलीप कुमार एक कलाकार हैं और उन्हें राजनीतिक पचड़ों में नहीं पड़ना चाहिए। पुरस्कार ले लेना चाहिए। इसके बाद दिलीप कुमार ने पुरस्कार स्वीकार कर लिया। अपने साथ सुनील दत्त को भी पाकिस्तान ले गए थे।
ठाकरे ने कहा- पुरस्कार लौटा दो: साल 1999 के कारगिल युद्ध के दौरान यह मामला एक बार फिर गरमा गया। तब ठाकरे ने दिलीप कुमार से अवॉर्ड लौटाने की मांग की लेकिन अभिनेता ने यह कहते हुए पुरस्कार लौटाने से मना कर दिया कि उन्होंने गरीबों की मदद की है…तमाम लोगों का साथ दिया है। इस पुरस्कार से भारत और पाकिस्तान के बीच की खाई पाटने में मदद मिलेगी…।’