गिरिजाशंकर

छत्तीसगढ़ के नौजवान सिने निदेशक मनोज वर्मा ने छत्तीसगढ़ी भाषा में ‘भूलन द मेज’ नामक फिल्म बनाई है, जो अपने विषय, निर्देशन, संगीत व लोक जीवन की प्रस्तुति के साथ न केवल सिने दर्शकों को बल्कि समूची फिल्म इंडस्ट्री को एक नए अनुभव से रूबरू कराती है। राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाली यह पहली क्षेत्रीय फिल्म है।

छत्तीसगढ़ में हम लोग बचपन से सुनते आ रहे थे कि जंगल में कंदमूल का एक पौधा होता है भूलन कांदा, जिस पर यदि किसी का पांव पड़ जाए तो वह अपना रास्ता भटक जाता है। वह तब ही इस भूलन से उबर पाता है, जब कोई राहगीर उसे स्पर्श कर ले। इसे अनुभव करने वालों के भी कई किस्से हमने सुन रखे थे। इस लोक अनुभव को आधार बनाकर प्रसिद्ध साहित्यकार संजीव बख्शी ने एक दशक पहले एक उपन्यास लिखा था ‘भूलन कांदा’।

भूलन की फैंटेसी को संजीव जी ने इतनी नाटकीयता के साथ अपने उपन्यास में प्रस्तुत किया, जो आज की व्यवस्था पर गहरा व्यंग्य करता है। ऐसा लगता कि समूची व्यवस्था का पांव उस भूलन कांदा पर पड़ गया है और वह अपनी राह भटक गया है। उसे किसी राहगीर की जरूरत है जो उसे छूकर उसकी भटकन को दूर कर सही रास्ते पर लाए।

गांव में एक बिरजू है, बेसहारा बीमार गंजहा है। अबोध भखला अपनी पत्नी बच्चों के साथ रहता है। बिरजू और भखला के बीच मामूली झड़प के दौरान पांव फिसलने पर कुल्हाड़ी पर गिर जाने से उसकी मौत हो जाती है। कानून की निगाह में मौत यानी हत्या। गांव वाले सामूहिक रूप से तय करते हैं कि इस मौत की जिम्मेदारी बीमार गंजहा अपने सिर ले लेगा व जेल चला जाएगा। वहां उसकी मुफ्त में तीमारदारी भी हो जाएगी। गंजहा इसके लिए सहर्ष तैयार हो जाता है। उसको बिरजू की हत्या के आरोप में जेल हो जाती है। बाद में पता चलता है कि गांव वालों ने तथ्य छुपाए।

असली आरोपी गंजहा नहीं भखला है। अब दो मुकदमे चलते है एक भखला पर हत्या का और दूसरा पूरे गांव वालों पर तथ्य छुपाने का। गांव वालों का सामूहिक फैसला सबके हित में था कि गंजहा की जेल में बेहतर तीमारदारी हो जाएगी। निर्दोष भखला का परिवार खुशहाल रहेगा और गांव का अमन चैन बना रहेगा। आखिरकार अदालत में बिरजू की मौत एक हादसा साबित होती है और भखला सहित सभी गांव वाले बरी हो जाते हैं।

इस कहानी को मनोज वर्मा की पटकथा और निर्देशन ने फिल्म में व्यवस्था पर व्यंग्य करने के साथ ही लोक आदिवासी जीवन की निश्छलता और उनके गांव पंचायत की मानवीय न्याय की परंपरा को इतने प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया है कि पूरी फिल्म सवाल उठाने के साथ-साथ गहरी संवेदना और लोक जीवन को उसके नितांत मौलिक रूप में दिलों को छू लेने वाली लगती है।

फिल्म में पात्रों के नाम हो या उनकी सहज प्रतिक्रिया व संवाद या संगीत या ग्रामीण जीवन शैली सब कुछ आदिवासी लोकजीवन से ज्यों के त्यों लिए गए हैं जो इस फिल्म को अद्वितीय बनाती है। फिल्म के गीत-संगीत में छत्तीसगढ़ लोक की मधुरता समाई हुई है। फिल्म के संगीतकार सुनील सोनी लोक संगीत में पारंगत हैं और उन्होंने दर्जनों छत्तीसगढ़ी फिल्मों में संगीत दिया है। उनके साथ-साथ तनु वर्मा और मीनाक्षी राउत के गानों में छत्तीसगढ़ के लोक गीत जीवंत हो उठते हैं।

फिल्म लोकप्रिय सितारों से मुक्त होते हुए अपना स्टारडम विकसित करती है। फिल्म में ह्यभखलाह्ण और उसकी पत्नी प्रेमिन की भूमिका ‘पीपली लाइव’ में नत्या बनकर रातों रात चर्चित होने वाले ओंकारदास मानिकपुरी व अणिमा पगारे ने निभाई है। राजेंद्र गुप्ता, मुकेश तिवारी को छोड़ दें तो लगभग सभी कलाकार स्थानीय स्तर के हैं। फिल्म में गंजहा की भूमिका सलीम अंसारी, कोटवार के रूप में संजय महानंद तथा मुखिया की भूमिका ो स्व. आशीष शेंडे ने निभाई है। मुझे हमेशा यह मलाल रहता आया है कि हबीब तनवीर के बाद छत्तीसगढ़ी लोक की परंपरा का संवाहक कोई क्यों नहीं बन सका। ‘भूलन द मेज’ को देखने के बाद यह आश्वस्ति जरूर हुई कि नाटक नहीं तो फिल्म में ही सही मनोज वर्मा हबीब साहब की परंपरा को कायम रखने में सफल रहे हैं।