‘झुंड’ देखते हुए आपको ‘चक दे इंडिया’, ‘सुल्तान’, ‘दंगल’ और सबसे ज्यादा ‘लगान’ की याद आएगी। बेशक ‘झुंड’ खेल आधारित फिल्म है लेकिन वह उससे आगे भी है। नागराज मंजुले वही फिल्मकार और निर्देशक हैं जिन्होंने कभी मराठी में ‘सैराट’ बनाई थी और जो भारत में जाति प्रथा को लेकर बनी बड़ी फिल्मों में हमेशा याद की जाएगी।
मंजुले ने ‘झुंड’ फिल्म में दो तत्वों को लिया है। एक तो फुटबाल और दूसरे झोपड़पट्टी को। झोपड़पट्टियों में रहने वाले लोगों के बारे में आम धारणा है कि वे अभाव की जिंदगी जीते हैं। उनके बच्चे नशा करते हैं और अपराध की दुनिया में चले जाते हैं। फिल्म में विजय बोराडे (अमिताभ बच्चन) नाम का एक व्यक्ति है जो काम तो एक कालेज में करता है लेकिन झोपड़पट्टियों में रहने वालों की जिंदगी में तब्दीली लाना चाहता है।
इसलिए वहां के बच्चों और नौजवानों की फुटबाल में दिलचस्पी लेना शुरू कराता है और हर दिन उनको अपनी जेब से 500 रुपए देता है। झोपड़पट्टी के नौजवान शुरू में तो रुचि नहीं दिखाते। फिर कुछ दिनों के बाद फुटबाल खेलना शुरू कर देते हैं और उनकी जिंदगी बदलने लगती है। फिर आगे चलकर ऐसा समय आता है कि इन नौजवानों को ‘होमलेस साकर’ नाम की एक विश्व प्रतियोगिता में जाने का मौका मिलता है।
फिल्म एक तरफ तो झुग्गी बस्तियों में रहने वालों की जिंदगी को दिखाती है और साथ ही यह बात भी रेखांकित करती है कि भारत में समृद्ध और गरीब लोगों में कोई मेल नहीं है। विजय बोराडे इन दोनों के बीच एक सेतु का काम करता है। अमिताभ बच्चन कि ये एक बेहद सकारात्मक फिल्म है और इसका सामाजिक संदेश दर्शकों को सोचने की दिशा में ले जाता है।
बेशक ‘झुंड’ व्यावसायिक फिल्म नहीं है और इसे बाक्स ऑफिस पर बड़ी सफलता की आशा नहीं करनी चाहिए फिर भी यह एक सामाजिक सद्भाव की बड़ी फिल्म है। इसके कई दृश्य दिल को छूनेवाले हैं। जैसे विजय के यहां फुटबाल की टीम के सारे युवाओं का अपनी अपनी जिंदगी की कहानी सुनाना। अदालत में अमिताभ के भाषण वाला दृश्य भी शानदार है।