कुछ चीजें समाज में वर्जित रहती हैं। उनके बारे में बात करना भी ठीक नहीं माना जाता है। बातचीत होती भी है तो फुसफुसाकर। पर क्यों? इसलिए कि ये सदियों से बनी आदत है। सेनिटरी नेपकिन या स्वच्छता पैड के बारे में समाज में कुछ ऐसी ही वर्जना है। महिलाओं की माहवारी के दौरान होनेवाले रक्तस्राव को रोकने के लिए इसे इस्तेमाल किया जाता है पर अभी भी इसके बारे में कोई चर्चा सार्वजनिक रूप से नहीं होती। जो इसके बारे में बोलता है उसका मजाक भी उड़ाया जाता है। ये तो टीवी पर आनेवाले विज्ञापनों की वजह से अब लोग दवा दुकानों पर इसे सरेआम खरीद सकते हैं वरना इसे अपने यहां रखने में भी दुकानवालों को शर्मिंदगी होती थी। ‘पैडमैन’ इस लिहाज से सामाजिक जागरूकता के लिए बड़ा और जरूरी कदम है। ये फिल्म मनोरंजक तो है ही साथ ही महिलाओं के स्वास्थ्य के एक खास पहलू की तरफ भी सबका ध्यान खींचती है।

फिल्म में लक्ष्मी चौहान (अक्षय कुमार) नाम का एक वेल्डर है। वेल्डर यानी जो सामाजिक जरूरतों के उपकरणों को ठोंकपीटकर बनाता है। लक्ष्मी अपनी पत्नी गायत्री (राधिका आप्टे) से बेहद प्यार करता है लेकिन उसे ये देखकर परेशानी होती है कि माहवारी के दौरान उसकी पत्नी घर में अलग कमरे में रहती है और गंदे कपड़ों का इस्तेमाल करती है। वो काफी कोशिश करता है कि खुद से सेनिटरी नेपकिन बनाए। लेकिन एक तरफ तो उसे अपनी पत्नी की तरफ से विरोध का सामना करना पड़ता है और फिर घर-परिवार में भी उसकी खिल्ली उड़ाई जाती है। पर लक्ष्मी अपनी धुन का पक्का है और वह अपना अभियान जारी रहता है पर उसी अनुपात में सामाजिक लांछन का शिकार भी बनता है।

ऐसे में पत्नी भी घर छोड़कर मायके चली जाती है और मां और बहनें भी कहीं और। अब वह क्या करे? क्या सेनिटरी पैड बनाने का ख्वाब छोड़ दे या अपनी राह पर चलता रहे और लांछनों की अनदेखी कर एक सेनिटरी पैड बनाने की मशीन का आविष्कार करे? पर वो तो पढ़ा लिखा है नहीं। तो क्या ऐसा कर पाएगा? उसके मन में विश्वास है। फिल्म एक सच्ची कहानी पर आधारित है। तमिलनाडु के अरुणाचाल मुरुगननथम ने सेनिटरी पैड बनाने का ऐसा एक सपना देखा था जो पूरा हुआ। निर्देशक आर बाल्की की ये खासियत है कि उन्होंने इस वर्जित करार दिए गए क्षेत्र में कदम रखा और उसे इस तरह पेश किया जिसमें हंसी के फव्वारे हैं और साथ ही रोमांटिक प्रेम की झलकियां भी। पर ये काम उन्होंने बड़ी बारीकी के साथ किया है।

मनोरंजन और सामाजिक सोच में मौजूद पिछड़ेपन को दिखाने का काम कुशलता के साथ किया गया है। जैसे जब लक्ष्मी फिल्म के शुरू में एक दुकान में सेनिटरी पैड खरीदने जाता है तो दुकानदार उसे ये पैड काउंटर के नीचे से बने सुराख से देता है ताकि दूसरे ग्राहकों को पता न चले कि वो ये भी बेचता है! दूसरा दृश्य वो है जिसमें लक्ष्मी खुद पर परीक्षण करते हुए अपने बनाए पैड को पहनकर जब साइकिल चलाता है तो उसका पैंट लाल रंग से रंग जाता है और वह अपनी झेंप मिटाने के लिए तालाब में कूद पड़ता है और सारे लोग ये समझते हैं कि उसे कोई गुप्त बीमारी हो गई है और वह एक दुश्चरित्र आदमी है।

ये दृश्य मजाकिया भी हैं और साथ ही सामाजिक स्तर पर फैले उस अंधविश्वास को भी सामने लाते हैं जिसमें लोग किसी को कुछ नया नहीं करने देते। अक्षय कुमार ने जिस लक्ष्मी के किरदार को निभाया है उसमें साधारणता भी है और कुछ खास करने का एक पैशन भी। अक्षय बिल्कुल एक सामान्य आदमी लगे हैं और राधिका आप्टे भी उस सामान्य घरेलू महिला की तरह लगी है जो महिलाओं के बारे में बनी सोच के भीतर बैठी है और वहां से बाहर नहीं आना चाहती है।