कर्नाटक में अब मतदान की तारीख नजदीक है। 10 मई को राज्य में वोट डाले जाएंगे। राज्य में अब चुनाव प्रचार अंतिम चरण में है लेकिन कांग्रेस के कैंपन को देखकर यह कहा जा सकता है कि उसने पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार यहां उतनी मेहनत नहीं की है, कम से कम 2019 के चुनाव के बाद से तो नहीं। कांग्रेस नेताओं की मानें तो उन्हें राज्य में जीत की खुशबू आ रही है। अगर ऐसा होता है तो यहां मिलने वाली जीत उनके लिए चुनावी वापसी की शुरुआत कर सकती है।

कर्नाटक उन चुनिंदा राज्यों में से एक है, जहां कांग्रेस के पास एक मजबूत संगठन और बेजोड़ नेतृत्व है। यह लीडरशिप ऐसी है, जो सभी प्रमुख जाति समूहों को साधती भी दिखाई देती है। राज्य के चुनावों में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के लिए भी बहुत कुछ दांव पर है क्योंकि यह उनका गृह राज्य है और यहां अगर कांग्रेस जीतती है तो 2024 से पहले यह जीत कांग्रेस के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है।

कांग्रेस अगर कर्नाटक जीतने में सफल रहती है तो समान विचारधारा वाले विपक्षी दलों को एक साथ लाने की उसकी कोशिश को भी सफलता मिलने के अनुमान निश्चित ही बढ़ जाएंगे। पार्टी इस चुनाव को कितना महत्व दे रही है, यह इस बात से स्पष्ट है कि खड़गे राज्य में किस तरह डेरा डाले हुए हैं और राहुल-प्रियंका द्वारा भी व्यापक प्रचार किया जा रहा है। यह पहली बार है कि दोनों भाई-बहन किसी राज्य के चुनाव के लिए मिलकर इतना आक्रामक अभियान चला रहे हैं।

खट्ठा-मीठा है कांग्रेस और कर्नाटक का रिश्ता

आपको बता दें कि कर्नाटक और कांग्रेस का खट्ठा-मीठा इतिहास है। 1969 में कांग्रेस पार्टी को अपने पहले बड़े विभाजन का सामना करना पड़ा था। तब पार्टी के अध्यक्ष एस निजलिंगप्पा थे, जो लिंगायत नेता और कर्नाटक के दो बार के पूर्व मुख्यमंत्री थे। तब निजलिंगप्पा ने इंदिरा को निष्कासित कर दिया था। इंदिरा उस समय प्रधानमंत्री थीं। हालांकि इस घटनाक्रम से इंदिरा को ताकत मिली। उन्होंने संसद में सफलतापूर्वक अविश्वास प्रस्ताव का सामना किया। इसके बाद नए चुनाव चिन्ह (गाय और बछड़ा) के बाद भी उन्होंने चुनाव में बहुमत हासिल किया।

इसके बाद साल 1978 में कर्नाटक भी सुर्खियों में आया। यह वह दौर था जब जनता पार्टी गठबंधन ने इंदिरा को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। जनवरी 1978 में इंदिरा ने कांग्रेस का विभाजन कर दिया। तब कर्नाटक ने इंदिरा को जरूरी ताकत दी। इंदिरा गांधी की कांग्रेस (आई) ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की। यह जीत इतनी बड़ी थी कि मेन कांग्रेस का सफाया हो गया।

इसके एक साल बाद इंदिरा फिर कर्नाटक लौटीं। उन्होंने चिकमंगलूर लोकसभा सीट से उपचुनाव लड़ा और जनता दल के अपने प्रतिद्वंदी वीरेंद्र पाटिल को हराया। तब इंदिरा के पक्ष में ‘एक शेरनी, सौ लंगूर; चिकमगलूर, चिकमंगलूर’ का नारा लगा जो भारत के सियासी इतिहास में हमेशा के लिए दर्ज हो गया। इसके एक साल बाद कर्नाटक में कांग्रेस की सियासत ने फिर करवट ली। पार्टी में इंदिरा गांधी के वफादार सीएम देवराज उर्स ने कांग्रेस छोड़ अपने अलग पार्टी बना ली।

साल 1989 में कांग्रेस कर्नाटक में छह साल बाद सत्ता में लौटी। 1999 में सोनिया गांधी की सियासत में एंट्री कर्नाटक के बेल्लारी से ही हुई। यहां सोनिया का सामना बीजेपी की दिग्गज सुषमा स्वराज से हुई। तब भी कर्नाटक देशभर की नजरों में छा गया। 1999 में भले ही कांग्रेस हार गई लेकिन सोनिया बेल्लारी से जीत गईं। पार्टी को कर्नाटक विधायनसभा में जीत मिली।

अब इस साल हो रहे विधानसभा चुनाव पिछले सभी चुनाव से अलग हैं। इस चुनाव में एकमात्र समानता शायद यही है कि कांग्रेस चुनावी रूप से अपने सबसे निचले स्तर पर है और लोकसभा चुनावों से एक साल पहले और राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे प्रमुख राज्यों में चुनावों से महीनों पहले कर्नाटक से उसे जरूरी जीत की आस है।