पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान जैसे कई राज्यों में अपने प्रदर्शन का शिखर छू लिया था. इस बार भी उन राज्यों में अगर वह दमदार प्रदर्शन करे तो भी उसे शिखर से कुछ नीचे तो आना ही पड़ेगा. इसकी भरपाई वह जिन राज्यों से करना चाहती है, उनमें पश्चिम बंगाल भी है. इसी कोशिश में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह बीते दो-ढाई सालों से बंगाल को लेकर काफी सक्रिय हैं. बंगाल में भाजपा जिन इलाकों को अपने लिए संभावनाशील मानकर चल रही है, उनमें उत्तर बंगाल भी है।
झारखंड, बिहार, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, असम और सिक्किम से घिरे आठ जिलों (अलीपुरद्वार, कूचबिहार, जलपाईगुड़ी, दार्जिलिंग, कालिम्पोंग, उत्तर दिनाजपुर, दक्षिण दिनाजपुर, मालदा) वाले इस भू-भाग में आठ लोकसभा सीटें हैं। इन आठ में से चार सीटें तृणमूल कांग्रेस के पास हैं, जबकि दो कांग्रेस, एक सीपीएम और एक भाजपा के पास. एक तरह से कहें दक्षिण बंगाल के मुकाबले तृणमूल यहां कमजोर स्थिति में है और यही कारण है कि भाजपा यहां अपने लिए ज्यादा गुंजाइश देखती है. शायद यही वजह है कि अमित शाह ने 22 जनवरी को बंगाल में अपने मिशन 2019 के औपचारिक शंखनाद के लिए राज्य के उत्तरी हिस्से में स्थित मालदा को चुना है.
मालदा उत्तर बंगाल का अकेला जिला है, जहां लोकसभा की दो सीटें है. कालिम्पोंग को छोड़ बाकी जिलों में एक-एक सीट है. वहीं कालिम्पोंग जिला दार्जिलिंग सीट के ही अधीन है. मालदा की पहचान गनी खान के गढ़ के रूप में होती रही है. हो सकता है कि नयी पीढ़ी गनी खान को उस तरह न जानती हो, उनके लिए बता दें कि गनी खान का पूरा नाम अबु बरकत अताउर गनी खान चौधरी था. वह राष्ट्रीय राजनीति में ए. बी. ए. गनी खान चौधरी के नाम से देश जाने जाते थे, तो स्थानीय लोग प्यार से उन्हें बरकतदा कहते थे।
1972 में राज्य सरकार में बिजली मंत्री बनने तक वह मालदा को अपना गढ़ बना चुके थे। बंगाल में कांग्रेस के हाथ से सत्ता फिसलने के बाद उन्होंने 1980 से केंद्र का रुख किया और तब से लेकर 2004 तक वह आठ बार लोकसभा पहुंचे। इस दौरान 1982 से 1984 तक इंदिरा गांधी सरकार में उन्होंने रेल मंत्री रहते हुए बंगालियों के दिल में अपने लिए एक अलग जगह बना ली।
2006 में गनी खान के निधन के बाद भी मालदा की राजनीति में उनका क्या असर है, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भी मालदा उत्तर सीट गनी खान की भांजी मौसम नूर और भाई अबु हाशेम खान चौधरी ने कांग्रेस के लिए जीती। लेकिन इन नतीजों में भाजपा के लिए उम्मीद की किरण भी दिखायी दी। मालदा दक्षिण जहां 62% मुस्लिम मतदाता हैं, वहां भाजपा दूसरा स्थान पाने में सफल रही। कांग्रेस, सीपीएम और तृणमूल ने जहां मुस्लिम उम्मीदवार उतारे थे तो भाजपा ने हिन्दू।
भाजपा अगर हिन्दू वोटों का ध्रुवीकरण कर ले तो उसके लिए सम्भावना बन सकती है। वहीं मालदा उत्तर जहाँ मुस्लिम वोट 38% हैं, से मौसम नूर ने सीपीएम को पराजित किया था और भाजपा अच्छे वोट पाकर चौथे स्थान पर रही थी। खास बात यह है कि राज्य में सत्तारूढ़ तृणमूल इन सीटों पर चौथे और तीसरे नंबर तक ही पहुंच सकी थी।
मालदा जिले ने 2016 के विधानसभा चुनाव में भी तृणमूल के लिए पूरे राज्य से उलट तस्वीर पेश की। यहां की 12 सीटों में से वह एक भी नहीं जीत सकी। गनी खान के भाई अबु नासेर खान चौधरी तक सुजापुर सीट से तृणमूल के टिकट पर नहीं जीत सके। उन्हें गनी खान के ही एक भतीजे ईशा खान चौधरी ने हराया। वहीं कांग्रेस को 9, सीपीएम को 2 और भाजपा को एक सीट मिली थी। इस झटके के बाद ममता बनर्जी ने हर हाल में मालदा में अपना वर्चस्व कायम करने की मुहिम छेड़ दी। इसके तहत सीपीएम की एक विधायक और कांग्रेस के तीन विधायकों को उनकी पार्टी से तोड़कर तृणमूल में शामिल किया जा चुका।
इस तरह तृणमूल जिले में शून्य से अपना आंकड़ा चार विधायकों का कर चुकी है। इसके अलावा उसकी निगाह मालदा के दोनों सांसदों पर भी है। मालदा शहर की दोनों नगरपालिकाओं और जिला बोर्ड पर भी तृणमूल का कब्ज़ा हो चुका है। ऐसे में 2014 और 2016 के आधार पर तृणमूल का आकलन करना भूल होगी। लेकिन 2014 में अच्छे वोट लाने के बाद 2016 में एक विधायक की जीत और कई सीटों पर तीसरे स्थान ने भाजपा को भी एक मजबूत जमीन दे दी है।