उत्तर प्रदेश में कभी कांग्रेस का एकाधिकार था, आज पार्टी यहां अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में स्मृति ईरानी के हाथों अमेठी गंवा देने वाली कांग्रेस के सामने अब रायबरेली को बचाने की बड़ी चुनौती है। अब तक कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व अमेठी और रायबरेली से गांधी परिवार के किसी भी सदस्य को चुनाव मैदान में उतार पाने का साहस नहीं बटोर पाया है।
जबकि लंबे समय तक इन दोनों ही संसदीय सीटों का शुमार कांग्रेस के मजबूत किले के तौर पर होता रहा है। बात 2009 के लोकसभा चुनाव की है। इस चुनाव में कांग्रेस ने अकबरपुर, अमेठी, रायबरेली, बहराइच, बाराबंकी, बरेली, धौरहरा, डुमरियागंज, फैजाबाद, फरुर्खाबाद, गोंडा, झांसी, कानपुर, खीरी, कुशीनगर, महाराजगंज मुरादाबाद, प्रतापगढ़, श्रावस्ती, सुल्तानपुर और उन्नाव सीटों पर जीत दर्ज की।
लेकिन इस चुनाव के ठीक पांच साल बाद हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस रायबरेली और अमेठी तक ही सीमित रह गई। अब आलम यह है कि इन दोनों ही सीटों पर गांधी परिवार का कोई भी सदस्य चुनाव लड़ पाने का साहस ही नहीं बटोर पा रहा है। यदि बात रायबरेली सीट की की जाए तो 1999 के चुनाव में गांधी परिवार से बाहर कैप्टन सतीश शर्मा चुनाव जीते थे। उसके बाद साल 2004 से साल 2024 तक सोनिया गांधी इस सीट पर सांसद रहीं।
बीते महीने राजस्थान से उनके राज्यसभा जाने की वजह से रायबरेली से चुनाव किसको लड़ाया जाए? इस सवाल पर कांग्रेस आलाकमान लगातार गहन मंथन कर रहा है। वहीं, रायबरेली जैसी मिलती जुलती कहानी अमेठी की भी रही। 1998 के लोकसभा चुनाव में आखिरी बार गांधी परिवार से बाहर के कैप्टन सतीश शर्मा ने यहां से चुनाव लड़ा और भाजपा के संजय सिंह से चुनाव हार गए।
अपनी हारी हुई सीट वापस पाने के लिए 1999 के लोकसभा चुनाव में सोनिया गांधी ने अमेठी की कमान संभाली। साल 2004 तक वे अमेठी से सांसद रहीं। इसके बाद उन्होंने अमेठी, राहुल के हाथों सौंप दी। जो 2004 से 2019 तक लगातार यहां से सांसद रहे। 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें स्मृति ईरानी के हाथों शिकस्त का सामना करना पड़ा।
आखिर ऐसा क्या हुआ कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस पूरी तरह हाशिए पर आ गई? इसका जवाब भाजपा के विधान परिषद सदस्य विजय बहादुर पाठक देते हैं। उनके मुताबिक, जब से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में क्षेत्रीय दलों के भरोसे सियासत करने को मजबूर हुई। तब से उसका पतन होना शुरू हुआ। उत्तर प्रदेश से जुड़े कांग्रेस के नेता प्रदेश स्तर की राजनीति की जगह राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करने पर अधिक केंद्रित होते गए।
इसकी वजह से पार्टी का प्रदेश स्तर का संगठनात्मक ढांचा पूरी तरह चरमरा गया और इसका परिणाम सामने है। कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में जनाधार कम क्यों हुआ? इसका जवाब कांग्रेस के वरिष्ठ नेता वीरेंद्र मदान देते हैं। वे कहते हैं, जब से लोकसभा चुनाव विकास के मुद्दों से इतर साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर लड़ा जाने लगा तब से कांग्रेस उत्तर प्रदेश में कमजोर होती गई। मगर इस बार कांग्रेस अपने प्रदर्शन से सबको चकित कर देगी।