जिस उत्तर प्रदेश ने सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में अपना 91 फीसद मैदान भारतीय जनता पार्टी के सुपुर्द कर दिया हो, वहां पार्टी को विधानसभा चुनाव की जमीन तलाश करनी पड़ रही है। प्रत्याशियों के चयन में जातिगत समीकरणों और समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी से पार्टी अन्तरविरोध का शिकार है। वहीं 71 सांसदों के पौने तीन साल के कार्यकाल में कुछ खास हासिल न होना भी पार्टी के समक्ष बड़ी मुश्किलें पेश कर रहा है।  उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की पेशानी पर बल है। प्रदेश की 125 से अधिक विधानसभा सीटों पर अन्य दलों से आए नेताओं को प्रत्याशी बनाए जाने से प्रदेश के अधिकांश जिलों में पार्टी को कार्यकर्ताओं के भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इलाहाबाद के एक वरिष्ठ भाजपा नेता कहते हैं, शहर की उत्तरी व दक्षिणी सीट पर पार्टी आलाकमान ने उन दो नेताओं को टिकट दिया, जो कभी घोर बसपाई थे और हाथी चुनाव निशान पर चुनाव लड़ चुके हैं। इनमें से एक बहनजी की सरकार में मंत्री भी रहे। बसपा में रहने के दौरान जिन्होंने भाजपा को जमकर खरी-खोटी सुनाई। अब भाजपा में आने और पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने पर उनके पक्ष में भाजपा कार्यकर्ता कैसे चुनाव प्रचार करें? पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए यह किसी बड़े अन्तरद्वंद्व से कम नहीं। ऐसा हाल प्रदेश की अधिकांश विधानसभा सीटों पर है।  बाहरी नेताओं को अपना बनाकर उन पर अपनों से  अधिक भरोसा दिखाने की नई परंपरा ने उत्तर प्रदेश में पार्टी के भीतर भारी अन्तरविभेद उत्पन्न कर दिया है। कार्यकर्ताओं के बीच फैले रोष को भांपने के लिए भाजपा के राष्टÑीय अध्यक्ष अमित शाह की कोर टीम ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में डेरा डाल रखा है। सोमवार की देर रात तक इस टीम के कई सदस्य विधानसभा वार मेरठ व मुजफ्फरनगर में रूठे कार्यकर्ताओं को मनाने की कोशिशों में जुटे थे। यह वह इलाका है, जहां सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के पूर्व अमित शाह ने कई साठ से अधिक कार्यकर्ता सम्मेलन किए थे। उस वक्त उनके पास उत्तर प्रदेश का प्रभार भी था। लेकिन इस बार अब तक वे कार्यकर्ताओं से रूबरू नहीं हुए हैं।

उत्तर प्रदेश की 71 लोकसभा सीटों पर सोलहवीं लोकसभा चुनाव के दौरान जीत दर्ज कर सनसनी फैलाने वाली भाजपा इस वक्त प्रदेश में हर मोर्चे पर घिरती नजर आ रही है। मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के राष्टÑीय अध्यक्ष अखिलेश यादव अपनी चुनावी सभाओं में कहते हैं, ‘किसी सांसद का कोई एक काम जनता के बीच सार्वजनिक करे भाजपा। सांसदों ने जो गांव गोद लिए थे, उनका सूरतेहाल ही प्रदेश व देश की जनता के बीच बयां कर दें। इस बात का ब्योरा तो प्रदेश की जनता को भाजपा दे ही कि आखिर उसके सांसदों ने अपने संसदीय क्षेत्र में एक साल में कितने दिन बिताए। उत्तर प्रदेश के युवाओं के लिए प्रत्येक सांसद ने अपने क्षेत्र में रोजगार के कौन से संसाधन उपलब्ध कराए? कई मंत्री और प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश से हैं। उसके बाद भी भाजपा के पास बताने को कुछ नहीं है।’

इस वक्त उत्तर प्रदेश में 39 साल या उससे कम उम्र के मतदाताओं का प्रतिशत 56.17 फीसद है। यह मतदाताओं की वह बिरादरी है, जो जाति-धर्म से इतर रोजगार और विकास को अधिक तरजीह दे रही है। युवा मतदाताओं के इस मिजाज को भांप कर उत्तर प्रदेश सरकार ने लखनऊ में 14वें वित्त आयोग से ढाई लाख करोड़ रुपए की मांग की। प्रदेश की समाजवादी पार्टी की सरकार ने पांच साल के अपने कार्यकाल में युवाओं को बीस लाख से अधिक लैपटॉप बांटे लेकिन उसके बाद भी वह विधानसभा चुनाव में जीत को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजेंद्र कुमार कहते हैं, ‘यदि लैपटॉप बांटने से जीत सुनिश्चित दिखती तो कांग्रेस के साथ गठबंधन की आवश्यकता ही क्या थी? साफ है कि युवा सियासी भेंट से अधिक रोजगार को तरजीह दे रहा है। उसकी इस प्राथमिकता को अब तक भारतीय जनता पार्टी उत्तर प्रदेश में पूरा नहीं कर पाई है। फिलहाल उत्तर प्रदेश में 14 बरस से वनवास झेल रही भारतीय जनता पार्टी विकास और कार्यकर्ताओं के बीच आपसी विश्वास के मोर्चे पर संघर्षरत है। इस संघर्ष से उसे हासिल कितना होगा? यह तो 11 मार्च को तय होगा लेकिन इन दोनों ही मुद्दों ने पार्टी का सब कुछ दांव पर लगा दिया है। जिसके इस पार सत्ता है और उस पार संघर्ष।

कार्यकर्ताओं की उपेक्षा

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के पूर्व अमित शाह ने साठ से अधिक कार्यकर्ता सम्मेलन किए थे। उस वक्त उनके पास उत्तर प्रदेश का प्रभार भी था। लेकिन इस बार अब तक वे कार्यकर्ताओं से रूबरू नहीं हुए हैं।

अपनों का अंतर्द्वंद्व
बसपा में रहने के दौरान जिन्होंने भाजपा को जमकर खरी-खोटी सुनाई। अब भाजपा में आने और पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ने पर उनके पक्ष में भाजपा कार्यकर्ता कैसे चुनाव प्रचार करें? पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए यह किसी बड़े अन्तरद्वंद्व से कम नहीं।