पांच सूबों उत्तर प्रदेश में चुनावों की तारीख का एलान होते ही रणभेरी बज चुकी है। सियासी समर के लिए देश की तमाम पार्टियां तैयार हैं। अपने भावी जनप्रतिनिधियों को महीने भर चलने वाले मतदान के दौरान चुनेंगे। एक निगाह-


सपा

विकास करने और गुंडों और दलालों को हाशिए पर डालने की नई छवि गढ़ते हुए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी में मजबूत स्थिति बना ली है। लगभग समूची सपा अब उनके पीछे है।

चुनाव में सपा के झगड़े ने बाकी दलों की बांछे खिला रखी हैं। साइकिल पर सवारी को लेकर पिता-पुत्र में होड़है। समझौते के कई कोशिशें विफल हो चुकी हैं। मुलायम सिंह यादव चुनाव आयोग में साइकिल पर दावेदारी को लेकर दस्तक दे चुके हैं। अभी तक की स्थिति से लग रहा है कि समझौता मुश्किल है। अखिलेश राज्य में किए गए काम केआधार पर मोर्चा खोल चुके हैं। उन्होंने अपने पांच साल के कामकाज की अच्छी-खासी सूची तैयार कर जनता के सामने रखनी शुरू कर दी है। अखिलेश ने 2012 का वादा पूरा करते हुए छात्रों के बीच 15 लाख से ज्यादा लैपटॉप बांटे हैं।

सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक जमापूंजी 60 साल की है। यह बुजुर्ग नेता हालांकि आंतरिक संघर्ष में अपने बेटे अखिलेश से पिछड़ गए हैं फिर भी वे साइकिल को अपने पास बनाए रखने के लिए एड़ी-चोटी एक किए हुए हैं।

बसपा

यूपी में जब भी मायावती रही हैं, कानून-व्यवस्था को लेकर उन्हें शाबाशी ही मिली है। 2007 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने बहुमत के साथ सत्ता हासिल की थी हालांकि 2012 मं उन्हें सपा से मुंह की खानी पड़ी थी।

यही अकेली पार्टी है जिसका दलित आधार लगभग हर चुनाव क्षेत्र में अटूट है। मायावती इस बार दलित-मुसलिम गठजोड़ के बूते चुनावी वैतरिणी पार करने के प्रयास में हैं। बसपा का आकलन है कि यदि 19 फीसद मुसलिम वोट मिल जाएं तो आसानी से सत्ता की चाभी उसे मिल सकती है। देखना यह है कि मुसलिम मतदाता अपनी परंपरागत पार्टी सपा का साथ छोड़ पाते हैं या नहीं। बीच में वसपा को झटका भी लगा। उसके 10 विधायक और एक पूर्व सांसद पार्टी छोड़ भाजपा में शामिल हो गए हैं।

कांग्रेस 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति के साथ भाजपा यूपी में मैदान में है। पार्टी ने बिहार, हरियाणा और महाराष्ट्र की तरह यहां भी मुख्यमंत्री का कोई चेहरा पेश नहीं किया है। मोदी ही केंद्रबिंदु में हैं। सपा में आंतरिक संघर्ष भाजपा के लिए बढ़िया खबर है। पार्टी जातियों का गुणा-भाग अपने पक्ष करने में जुटी हुई है।
राज्य में कांग्रेस की कार्यकर्ताआधार कमजोर पड़ चुका है। लिहाजा पार्टी अपने बचे-खुचे वोटों के साथ सपा से गठबंधन की उम्मीद लगाए बैठी है। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी की किसान यात्रा अपना असर बहुत नहीं छोड़ पा रही है तो इसकी वजह जमीनी स्तर पर कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का कमजोर पड़ जाना है। कांग्रेस यहां चौथे नंबर की लड़ाई लड़ रही है। राहुल गांधी ने लोगों का ध्यान खींचने के लिए कर्ज से राहत, गांवों में बिजली बिलों में छूट और किसानों के फसलों की उचित कीमत दिलाने पर जोर दे रहे हैं।

क्या हैं मुद्दे
नोटबंदी
भाजपा सरकार की ओर से नोटबंदी का फैसला कितना उपयुक्त था, यह आगामी चुनावों में मतदाता तय करेंगे। भाजपा को विश्वास की लोग उसके उम्मीदवारों का समर्थन करेंगे। वहीं कांग्रेस, सपा और बसपा जनता में फैली नाराजगी को भुनाना चाहेंगे।

विकास
सभी दल विकास की ही बात कर रहे हैें लेकिन उत्तर प्रदेश में दलों की नजरें जातियों की समीकरण पर टिकी हुई हैं। हाल में यूपी सरकार ने 17 अति पिछड़ी जातियों को दलितों की सूची में शामिल किया। भाजपा की कोशिश गैर जादव दलितों और गैर यादव अन्य पिछड़ा वर्ग के मतदाताओं कोअपने पाले में लाने की है। ब्राह्रम्ण वोटों को लुभाने के लिए कांग्रेस ने शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के रूप में प्रस्तुत किया है।

ध्रुवीकरण
कोई भी दल ध्रुवीकरण को अपनी रणनीति में शामिल नही करता लेकिन यह अक्सर उत्तर प्रदेश में अपनी भूमिका निभाता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में पश्चिमी यूपी में हुए ध्रुवीकरण ने मतदान के तरीके को बदलने में रोल निभाया था।