लोकसभा चुनाव के लिए कांग्रेस ने अमेठी और रायबरेली सीट पर अपने उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया। जिन दो सीटों को लेकर पूरा देश चर्चा कर रहा था, वहां से कांग्रेस ने बड़ा खेल किया। रायबरेली से तो प्रियंका की जगह राहुल गांधी को उतारा गया, वहीं अमेठी से स्मृति के सामने के एल शर्मा को उम्मीदवार बनाया गया। अब अमेठी में जिस तरह से गांधी परिवार से बाहर के शख्स को चुनावी मैदान में उतारा गया है, उसके अपने मायने है।
स्मृति और राहुल के बीच का बड़ा अंतर
अमेठी सीट एक जमाने में कांग्रेस का सबसे मजबूत गढ़ रही है, यहां से उसे हराने वाला कोई नहीं था। गांधी परिवार पर तो अमेठी की जनता ने अपनी विशेष कृपा रखी। इसी वजह से संजय गांधी, राजीव गांधी, सोनिया गांधी और फिर राहुल गांधी पर जनता का विश्वास अटूट दिखा। राहुल ने तो 2019 तक ये सीट अपने कब्जे में रखी थी, लेकिन पिछले लोकसभा चुनाव में बड़ा खेल हुआ और अमेठी की सीट कांग्रेस के पंजे से छिटक गई। जीत मिली बीजेपी की कद्दावर नेता स्मृति ईरानी को, जिन्होंने 2014 में भी राहुल के सामने ही ताल ठोकी थी। उस चुनाव में वे हार गई थीं, लेकिन एक बड़ा फर्क रहा। कहना चाहिए वो अंतर ही बताने के लिए काफी है कि आखिर क्यों राहुल ने अमेठी सीट छोड़ दी।
एक हार से डिगी नहीं स्मृति ईरानी
असल में स्मृति को जब 2014 में हार मिली थी, उन्होंने सिर्फ वो सीट गंवाई, खुद को अमेठी की जनता से दूर नहीं किया था। हार के बावजूद भी ऐसा देखा गया कि राहुल गांधी से ज्यादा उपस्थिति क्षेत्र में उनकी रहती थी। उन्हें कहने को विपक्ष की भूमिका निभानी थी, उन्होंने उसे भी पूरी शिद्दत के साथ पूरा किया। राहुल को हर मोर्चे पर घेरा, हर बार उनकी जवाबदेही तय की। बार-बार नेरेटिव सेट किया, राहुल गांधी ने, गांधी परिवार ने आपके लिए इतने सालों में क्या किया। जनता के मन में भी वो सवाल घर कर गया और 2019 में सबसे बड़ा उलटफेर हुआ। गांधी परिवार से आने वाले राहुल अपने ही गढ़ में हार गए।
मोदी लहर नहीं स्मृति की मेहनत ने राहुल को हराया
अब कहने को कुछ लोग बोल सकते हैं कि मोदी लहर के दम पर अमेठी में वो उलटफेर हुआ था। लेकिन असल में अमेठी में ताकत स्मृति ईरानी की लगी थी, उनके जनसंपर्क अभियान और जनता के साथ बने मजबूत कनेक्ट ने उन्हें अमेठी में लोकप्रिय कर दिया था। इस बार जब अमेठी की जनता से सीधी बात की, ये पहलू प्रमुखता से सामने आया कि स्मृति ईरानी क्षेत्र में राहुल गांधी की तुलना में ज्यादा सक्रिय थीं, ज्यादा बार यहां आई थीं। इसके ऊपर क्योंकि उन्होंने अपना आवास भी वहां बना लिया, इसका असर भी जनता की धारणा पर सीधा पड़ा।
स्मृति ईरानी के नाम पर मिलेगा वोट!
बड़ी बात ये है कि अमेठी की जनता मानती है कि उनके क्षेत्र में वोट मोदी के नाम पर नहीं स्मृति ईरानी के नाम पर पड़ रहा है। ये दूसरे राज्यों की तुलना में एक बहुत बड़ा फर्क है। ग्राउंड रिपोर्टिंग के वक्त जब मथुरा गए, दिल्ली के सीलमपुर-जाफराबाद गए, गाजियाबाद गए या बात रायबरेली की क्यों ना हो, हर जगह ये बात कॉमन थी कि प्रत्याशी से ज्यादा जरूरी मोदी का चेहरा था। लेकिन अमेठी एक अपवाद निकला जहां पर मोदी से ज्यादा बड़ा फैक्टर स्मृति ईरानी हैं।
राहुल को पता चल गई थी असलियत
अब जानकार मानते हैं कि कांग्रेस को भी जमीनी हकीकत का अहसास था। राहुल पिछले पांच सालों में अमेठी में काफी कम दिखे थे, ये एक तथ्य था जिसे नकारा नहीं जा सकता। इसके ऊपर जिस तरह से खुद राहुल ने बार-बार वायनाड को अपना परिवार बताया था, दक्षिण की राजनीति में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई थी, उसका असर भी अमेठी की जनता पर था। ऐसे में अगर राहुल अमेठी से लड़ते, इन तमाम मुद्दों से उन्हें जूझना पड़ता, जवाब देना पड़ता। ऐसे में कांग्रेस ने अमेठी छोड़ राहुल को रायबरेली से उतार दिया।
समझने वाली बात ये भी है कि कांग्रेस राहुल बनाम स्मृति ईरानी की जंग नहीं चाहती है। राष्ट्रीय स्तर पर जब मुकाबला मोदी बनाम राहुल चल रहा हो, उस बीच स्मृति ईरानी की अमेठी से एंट्री देश की सबसे पुरानी पार्टी को असहज कर रही थी। एक बार हार भी मिल चुकी है, ऐसे में ये चुनौती ज्यादा बड़ी बन सकती थी। उस डर ने ही राहुल की अमेठी से एग्जिट करवाई और कहना चाहिए स्मृति ईरानी को एक बड़ी सियासी जीत मिल गई। असल नतीजे तो 4 जून को आने हैं, लेकिन जानकार भी मानते हैं कि के एल शर्मा के उतरने के बाद ईरानी का सफर कुछ आसान हो जाएगा।
कांग्रेस नहीं चाहती- ईरानी बनाम राहुल
ये नहीं भूलना चाहिए कि राहुल गांधी संसद से लेकर सड़क तक, सबसे तीखे हमले भी स्मृति ईरानी की तरफ से ही किए गए हैं। फ्लाइंग किस वाला विवाद रहा हो या फिर बात जब मणिपुर जैसे मुद्दे की हो, स्मृति ने हर बार राहुल को घेरा है, कहना चाहिए वो मुकाबला ज्यादातर जीता भी है। इसी वजह से स्मृति बनाम राहुल वाला कंटेस्ट कांग्रेस के लिए बड़ा सिरदर्द है। अब इस लड़ाई से राहुल कुछ समय के लिए बाहर हो गए हैं, अमेठी से ना लड़कर स्मृति को उनकी पहली मॉरल विकट्री दे दी गई है।
वैसे एक सोचने वाली बात ये भी है कि अब भविष्य की सियासत में भी स्मृति, राहुल गांधी पर ज्यादा हावी रहने वाली हैं। अगर रायबरेली से राहुल जीत भी गए, फिर भी ये तमगा कोई नहीं छीन पाएगा कि वे अमेठी छोड़कर गए थे। वो अमेठी जहां से स्मृति ईरानी ने उन्हें बड़े अंतर से हरा दिया था। ऐसे में स्मृति ने तो एक बार चुनावी हार देने का काम किया, लेकिन राहुल को वो मौका नहीं मिला। ऐसे में सियासी रूप से ज्यादा दबाव बनाने का काम स्मृति ईरानी कर सकती हैं जो राहुल गांधी की राजनीति पर गहरा असर डालेगा।