राजस्थान के विधानसभा चुनावों में जीत-हार के समीकरण में अनुसूचित जातियों और जनजातियों की बड़ी भूमिका मानी जाती है। राज्य की जनसंख्या में अनुसूचित जाति की 17.8 फीसदी और जनजाति की 13.5 फीसदी हिस्सेदारी है। ऐसे में आरक्षण और एससी-एसटी अधिनियम जैसे मसले यहां दोधारी तलवार से कम नहीं माने जाते। पिछले चुनावों की बात करें तो 2013 में सरकार बनाने वाली भाजपा ने यहां की 59 आरक्षित सीटों में से 50 पर जीत हासिल की थी। वहीं 2008 में सरकार बनाने वाली कांग्रेस इनमें से 34 सीटों पर जीती थी।
राज्य के सभी सात संभागों में अनुसूचित जाति के लोग अच्छी-खासी तादाद में हैं। लेकिन जनजातियों की बात करें तो उदयपुर संभाग में इनकी तादाद सबसे ज्यादा है। इसी के चलते नेताओं का फोकस भी इन इलाकों पर सबसे ज्यादा रहता है। बता दें कि इस बार मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने चुनाव प्रचार की शुरुआत उदयपुर संभाग के प्रसिद्ध तीर्थस्थल चारभुजा से की थी। वहीं कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की पहली सभा बांसवाड़ा जिले के सागवाड़ा में हुई थी।
इस बार की जंग जीतने के लिए दोनों प्रमुख पार्टियों ने इन वर्गों से आने वाले नेताओं पर नजर डाली है। वसुंधरा से मतभेद के चलते 10 साल पहले भाजपा छोड़ने वाले जनजातीय नेता किरोड़ी लाल मीणा की पार्टी में वापसी हुई है। इसी तरह कांग्रेस ने रघुवीर सिंह मीणा को अपनी उच्च स्तरीय समिति में जगह दी। राज्य के कुछ जनजातीय नेता मनरेगा को कमजोर करने का आरोप लगाते हुए भाजपा के प्रति जनजातीय लोगों में नाराजगी की बात कही है।
जनजातीय वर्गों में सामाजिक सुरक्षा की योजनाओं, पीडीएस सिस्टम, बुनियादी सुविधाओं, जंगली इलाकों में जमीनों के पट्टे देने, छात्रवृत्तियों, भारत बंद के दौरान आपराधिक मुकदमे दर्ज करने, छात्राओं को स्कूटी वितरण योजना से बाहर रखने आदि जैसे मसलों पर भाजपा से नाराजगी की बात कह रहे हैं। ऐसे में पहले से राजपूतों की नाराजगी के चलते परेशान भाजपा के लिए यह दोहरी मुसीबत जैसा लग रहा है।

