प्रियंका गांधी का कांग्रेस महासचिव बनना और उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान मिलने को भले ही उनकी पॉलिटिकल एंट्री माना जा रहा है लेकिन यह महज औपचारिकता थी। सच यह है कि 30 सालों से वे पूरी सक्रियता से राजनीति के मैदान में हैं। हर चुनाव में उनकी भूमिका अलग पहचानी जाती है। एक नजर डालते हैं तीन दशकों के उनके सियासी सफर पर…
1989 से 1991 तकः प्रियंका गांधी पहली बार 1989 में अपने पिता राजीव गांधी के लिए प्रचार करने उतरी थीं। इसके दो साल बाद ही राजीव गांधी की हत्या हो गई थी। पहले दादी और फिर पिता को खोने के बाद प्रियंका राजनीतिक गलियारों से दूर हुईं।
1999 के चुनाव में प्रियंका लाइन ने बदली कहानीः 1999 में उन्होंने एक बार फिर वापसी की। इस बार मां सोनिया गांधी के लिए उन्होंने कमान संभाली। अटल बिहारी वाजपेयी ने उस चुनाव में सोनिया के मुकाबले अमेठी से गांधी-नेहरू परिवार से ही ताल्लुक रखने वाले अरुण नेहरू को उतारा था। तब प्रियंका ने प्रचार में कहा था, ‘क्या आप उन्हें वोट दोगे, जिन्होंने मेरे पिता की पीठ में छुरा घोंपा।’ इस लाइन ने अमेठी-रायबरेली की कहानी बदल दी।
2004 से 2009 तक भाई राहुल का साथः 2004 में राहुल गांधी ने अपने चुनावी करियर का आगाज किया था। अमेठी से चुनाव लड़ रहे राहुल के लिए प्रियंका गांधी ने जमकर प्रचार किया था। इसके बाद 2009 में भी प्रियंका ने उन्हें काफी मदद की थी।
2014 में मोदी से टकरावः 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस पर तंज कसा था कि कांग्रेस अब बूढ़ी हो गई है। तब इसका जवाब देते हुए प्रियंका ने पूछा था- क्या मैं आपको बूढ़ी दिखती हूं।
यूपी विधानसभा चुनाव 2017: उत्तर प्रदेश में दो साल पहले हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस काफी कमजोर हालात से गुजर रही थी। प्रियंका ने यहां रणनीति से लेकर गठबंधन तक तमाम मामलों में अहम भूमिका निभाई। उस समय कांग्रेस के एक तबके में प्रियंका को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित करने की मांग भी उठी थी।