अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार उत्साह से भरी हुई थी, 1998 में सरकार बनाने के बाद एक बार फिर सत्ता वापसी के दावे किए जा रहे थे। अटल चेहरा और विकसित भारत का सपना बीजेपी को सातवें आसमान पर पहुंचा रहा था। भरोसा इतना ज्यादा हो चुका था कि समय से पहले ही 14वें लोकसभा चुनाव का ऐलान कर दिया गया, यानी कि टाइम से पहले ही देश लोकतंत्र का सबसे बड़ा पर्व मनाने जा रहा था।

बीजेपी को इतना विश्वास इसलिए था क्योंकि सारे फैक्टर उसके पक्ष में जा रहे थे। कुछ महीने पहले विधानसभा चुनाव में बड़ी जीत दर्ज की थी, अटल बिहारी वाजपेयी के चेहरे पर जनता को भरोसा दिख रहा था और इसके ऊपर एक फील गुड फैक्टर वाली बात भी हवा में चल रही थी। बीजेपी के रणनीतिकारों ने सभी को मना लिया था कि समय से पहले चुनाव करवाने से फिर सत्ता में आने की प्रबल गारंटी है। वो भरोसा इसलिए और ज्यादा बढ़ चुका था क्योंकि तमाम सर्वे एनडीए को एक बड़ी जीत की ओर अग्रसर दिखा रहे थे।

अब बीजेपी की जीत के लिए आश्वस्त थी, दूसरी तरफ सोनिया गांधी साथी दलों को कांग्रेस के साथ जोड़ने का काम कर रही थीं। कांग्रेस को बीजेपी की तरह जीत की गारंटी नहीं थी, लेकिन जमीन पर समीकरण साधने की एक कवायद साफ दिख रही थी। जब बीजेपी अतिविश्वास में डूबी थी, कांग्रेस ने UPA का गठन कर लिया था, यूपीए यानी यूनाइटेड प्रोग्रेसिव अलायंस। इसके तहत एनसीपी, पीडीपी, डीएमके, टीआरएस, झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसे कई दलों से हाथ मिलाया गया और सभी ने साथ मिलकर वो चुनाव लड़ा।

चार चरणों तक वोटिंग चली और 13 मई को चुनाव के नतीजे आ गए। सारे एग्जिट पोल धरे के धरे रह गए, बीजेपी के शाइनिंग इंडिया की हवा निकल गई और यूपीए ने सरकार बनाई। बीते कई सालों का वो सबसे अप्रत्याशित चुनावी नतीजा था जिसकी उम्मीद किसी ने भी नहीं की थी। कांग्रेस के खाते में गई 145 सीटें और बीजेपी को मिली सिर्फ 138 सीटें। अब चुनाव के दौरान कांग्रेस के मन में साफ था, अगर सरकार बनती है तो सोनिया गांधी ही प्रधानमंत्री बनेंगी। खुद सोनिया इसलिए पूरी तरह तैयार नहीं थीं, इसी वजह से औपचारिक ऐलान नहीं किया गया था, किसी को भी पीएम चेहरा नहीं बनाया गया। लेकिन एक जगजाहिर वाली बात थी कि अगर सरकार बनी तो बागडोर सोनिया अपने हाथों में लेंगी।

अब चुनावी नतीजों ने तो बता दिया था कि कांग्रेस सरकार बना रही है, लेकिन एक दूसरा नेरेटिव बनना शुरू हो चुका था। बीजेपी ने सोनिया को पीएम नहीं बनने देने की कसम खा ली थी। सुषमा स्वराज ने तो कह दिया था- अगर सोनिया गांधी को शपथ दिलाई गई तो मैं त्यागपत्र दे दूंगी. ये लड़ाई में भिक्षुणी के तौर पर लड़ूंगी. मैं रंगीन वस्त्र उतारकर केवल श्वेत वस्त्र धारण करुंगी. अपने केश भी कटा दूंगी. जमीन पर सोउंगी और भूने चने खाउंगी।

अब बीजेपी सुषमा के साथ खड़ी थी, इस नेरेटिव को अच्छी पकड़ के साथ आगे बढ़ा जा रहा था, दूसरी तरफ कांग्रेस सोनिया के पीएम ना बनने वाले दावों को खारिज करती जा रही थी, सभी को अफवाह बता दिया गया था। इस बीच सोनिया गांधी ने तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम से मुलाकात की। उस मुलाकात के दौरान सरकार बनाने का समर्थन पत्र नहीं दिया गया। यानी कि जब सरकार बनाने की पहल होनी चाहिए थी, एक साधारण मीटिंग कर मामला ठंडा पड़ गया।

लेकिन तब सोनिया ने मीडिया से कहा कि अगली मुलाकात में सरकार बनाने का पत्र दिया जाएगा। यानी कि सरकार तो बन रही थी, लेकिन प्रधानमंत्री कौन बनेगा, ये साफ होता नहीं दिख रहा था। कांग्रेस नेताओं की दिल की धड़कन बढ़ने लगी थी। सोनिया अगर पीएम ना बनीं तो आत्महत्या करने तक की बात होने लगी। हर कोई 10 जनपथ पर एकजुट होने लगा, सोनिया को पीएम बनाने के लिए हुंकार भरने लगा।

अब कहानी का एक दूसरा अध्याय उस समय गांधी परिवार के अंदर चल रहा था। राहुल गांधी और प्रियंका नहीं चाहते थे कि मां सोनिया पीएम पद स्वीकार कर लें। दादी इंदिरा को खोया था, पिता राजीव की हत्या हुई थी, अब मां को लेकर दोनों बच्चों के दिल में डर घर कर चुका था। पूर्व विदेश मंत्री कुंवर नटवर सिंह ने अपनी आटोबॉयोग्राफी ‘वन लाइफ इज नॉट इनफ’ (One Life Is Not Enough) में एक राज से पर्दा उठाया था। उन्होंने कहा था कि राहुल गांधी किसी भी कीमत पर सोनिया को पीएम बनते नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने सोनिया को सोचने के लिए 24 घंटे का अल्टीमेटम तक दे दिया था। उस समय वहां सिर्फ मनमोहन सिंह, खुद सोनिया, राहुल, प्रियंका और सुमन दुबे मौजूद थे।

अब बताया जाता है कि एक तरफ शरद पवार, रामविलास पासवान और लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं का पीएम बनने के लिए दबाव था तो दूसरी तरफ राहुल गांधी की मां के प्रति चिंता। अब सोनिया अपने बेटे की बात को नजरअंदाज नहीं कर सकती थीं, इसी वजह से उन्होंने पीएम बनने से मना कर दिया। कांग्रेस के सभी नेता चिल्ला रहे थे, NO-NO के नारे लग रहे थे और सोनिया ने मंच से ऐलान किया- मैं कभी भी प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहती थी, ये मेरा लक्ष्य नहीं था। मैं अपनी अंतरात्मा की आवाज सुनकर पीएम पद स्वीकार करने से मना करती हूं।

सोनिया के ऐलान ने कांग्रेस को बड़ी दुविधा में डाल दिया। कौन पीएम बनेगा, ये सवाल जस का तस बना रह गया। तब सोनिया ने ही उस समस्या का भी हल निकाला। पार्टी के बड़े नेताओं से बात की और देश को नरसिम्हा राव के बाद कांग्रेस ने एक और एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर देने का काम किया। नाम था- मनमोहन सिंह। एक दांव से दो निशाने साधे गए- एक तरफ बीजेपी वालों का मुंह बंद किया गया, दूसरी तरफ 1984 के दंगों के बाद पैदा हुई नाराजगी को भी कम करने का काम हुआ। इस तरह से 20 मई को डॉक्टर मनमोहन सिंह ने 13वें प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली थी।