मध्य प्रदेश का चुनाव इस बार और ज्यादा काटे की टक्कर वाला रहने वाला है। बीजेपी और कांग्रेस के बीच ये मुकाबला इस बार कई फैक्टरों की वजह से और ज्यादा चुनौतीपूर्ण बनता दिख रहा है। जमीन पर कई ऐसे समीकरण भी बदल गए हैं, जिस वजह से कभी कोई पार्टी तो कोई दूसरी पार्टी आगे दिखाई दे जाती है। एमपी में ऐसे ही एक निर्णायक फैक्टर हैं ज्योतिरादित्य सिंधिया। किसी जमाने में कांग्रेस के सबसे दिग्गज नेताओं में इनका नाम आता था, अब पाला बदलकर पिछले तीन सालों से वे बीजेपी की तरफ से बैटिंग कर रहे हैं।

मध्य प्रदेश का जो ग्वालियर-चंबल वाला इलाका है, वहां पर ज्योतिरादित्य सिंधिया की तूती बोलती है। इस इलाके से कुल 34 सीटें निकलती हैं जहां पर सिंधिया का गहरा प्रभाव है। जो पिछला विधानसभा चुनाव था, तब कांग्रेस ने शानदार प्रदर्शन करते हुए यहां से 26 सीटें निकाल ली थीं। तब बीजेपी के खाते में महज 7 सीटें गई थीं। लेकिन पिछली बार जिस फैक्टर के दम पर कांग्रेस ने बीजेपी को पछाड़ा था, वो अब बीजेपी में शामिल हो चुका है। सवाल ये उठता है कि जब मामा शिवराज और महाराज सिंधिया एक ही टीम से बैटिंग करेंगे तो जमीन पर बीजेपी के लिए स्थिति कितनी आसान और कितनी मुश्किल बन सकती है।

सिंधिया से ज्यादा उस राजघराने की लोकप्रियता

अब इस सवाल का जवाब तभी मिल सकता है जब ज्योतिरादित्य सिंधिया के सियासी सफर के साथ-साथ उनकी ‘महाराज’ वाली छवि को भी ठीक तरह से डीकोड किया जाए। असल में सिंधिया राजघराना कई साल पुराना है, आजादी से पहले तक तो उसकी शानो शौकत अलग ही दिखाई पड़ती थी। लेकिन भारत के आजाद होने के बाद सभी रियासतों का भारत में विलय करवा दिया गया और लोकतंत्र में राजाओं वाली परंपरा का धीरे-धीरे अंत हुआ। उस समय विजया राजे के पति जिवाजीराव सिंधिया राजप्रमुख हुआ करते थे, लेकिन फिर 1956 में उन्होंने अपना वो पद गंवा दिया और उनके पास कोई प्रजा नहीं बची।

कांग्रेस-बीजेपी दोनों को फायदा देने वाला राजघराना

अब उस समय ग्वालियर क्षेत्र में जिवाजीराव काफी लोकप्रिय थे, नेता नहीं थे, लेकिन उनकी राजा वाली छवि लोगों के दिल में बैठ चुकी थी। उस समय देश में सिर्फ कांग्रेस ही सबसे मजबूत पार्टी थी, विपक्ष में भारतीय जन संघ बैठा था जिसे अपना विस्तार करना बाकी था। लेकिन जिवाजीराव को कभी भी कांग्रेस से लगाव नहीं रहा, ऐसे में उन्होंने बीजेएस का समर्थन किया। उनके उस एक समर्थन ने विजया राजे को आशंकित कर दिया था, उन्हें लगा कि उनका जो रसूक है, वो खतरे में पड़ जाएगा। ऐसे में उन्होंने कांग्रेस को भरोसा दिलाया कि उनके पति और उनका खुद राजनीति में कोई इंट्रेस्ट नहीं है। लेकिन तब कांग्रेस की तरफ से दबाव बनाया गया कि सिंधिया राजघराना कांग्रेस की टिकट से चुनाव लड़े और सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन जाए। यानी कि बिना इच्छा के ही विजया राजे ने कांग्रेस के ऑफर को स्वीकार कर लिया और फिर 1957 में हुए लोकसभा चुनाव के दौरान वे गुना से सांसद चुन कर आईं।

अब गुना से विजया राजे इसलिए नहीं जीतीं कि वे कांग्रेस में शामिल हुईं, बल्कि उनका जीतना इसलिए तय था क्योंकि गुना उस ग्वालियर चंबल इलाके में आता था जहां पर सिंधिया राजघराने का गहरा प्रभाव रहा, लोगों के बीच में उस परिवार के प्रति जबरदस्त सम्मान था। ये अलग बात है कि 1966 आते-आते विजया राजे ने कांग्रेस छोड़ दी और फिर दो सीट गुना और ग्वालियर से चुनाव लड़ा। दोनों सीटों पर जीत दर्ज हुई और उनका सियासी सफर शुरू हो गया। इसके बाद विजया के बेटे माधव राव सिंधिया ने पहले निर्दलीय और फिर कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ा और उनका भी जीत का रिकॉर्ड कायम रहा। 1971 से 2001 तक माधवराव सिंधिया एक भी चुनाव नहीं हारे और कुल 9 बार गुना से सांसद बने। बड़ी बात ये रही कि उनकी मां विजया राजे एक तरफ बीजेपी के प्रति वफादार रहीं तो वहीं बेटे माधवराव अंतिम समय तक कांग्रेस के साथ जुड़े रहे।

सिंधिया का होना कितना असर डालता है?

इसी सियासत के बीच ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी कांग्रेस से अपने राजनीतिक सफर की शुरुआत की और उन्हें देन में ही राजघराने वाली एक ऐसी लोकप्रियता मिली कि उन्होंने 2002, 2004, 2009 और फिर 2014 वाले चुनाव में बड़ी जीत दर्ज की और लगातार सांसद बनते रहे। 2019 वाले चुनाव में जरूर सिंधिया को पहली बार हार का सामना करना पड़ा, लेकिन जमीन पर उनकी एक अलग तरह की लोकप्रियता बनी रही।

अब बात उनकी बीजेपी में आने की, यानी कि साल 2020 जब उन्होंने कमलनाथ सरकार को सबसे बड़ा झटका देने का काम किया। किसी को उम्मीद नहीं थी कि कांग्रेस सरकार सिर्फ 15 महीने के अंदर में गिर जाएगी। लेकिन ऐसी थी ज्योतिरादित्य सिंधिया की ताकत कि उनके एक कदम ने कई विधायकों को तोड़ने का काम कर दिया और अब सभी बीजेपी में शामिल हो चुके हैं। वर्तमान में ग्वालियर-चंबल इलाके में बीजेपी काफी मजबूत दिखाई देती है। इस क्षेत्र में मुरैना, ग्वालियर, भिंड, शिवपुरी, श्योपुर, दतिया, अशोकनगर और गुना जिले आते हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इस इलाके में बीजेपी का सूपड़ा साफ कर दिया था। उसने 34 में से 26 सीटें जीतकर कमाल कर दिखाया था। लेकिन उस जीत का क्रेडिट ज्योतिरादित्य सिंधिया की लोकप्रियता और उनके आक्रमक प्रचार को गया।

ग्वालियर-चंबल में बीजेपी से बड़े हो गए सिंधिया?

लेकिन जब चुनाव के बाद स्थिति बदली और सिंधिया ने पाला बदला, उसका असर ग्वालियर-चंबल इलाके में भी पड़ा। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि बाद में हुए कई उपचुनाव में बीजेपी ने जीत दर्ज की, उन इलाकों में जीत दर्ज की जहां पर सिंधिया का जोर था। इसी वजह से वर्तमान में ग्वालियर-चंबल की 34 सीटों में से बीजेपी ने अपने खाते में 16 सीटें कर ली हैं, वहीं कांग्रेस एक सीट अधिक के साथ 17 पर खड़ी है। ये बड़ी बात है क्योंकि जिन क्षेत्र में कांग्रेस को बढ़त मिलती दिख रही थी, एक सिंधिया फैक्टर ने वहां भी हवा के रुख को बदलने का काम कर दिया है। अब एक तरफ शिवराज सिंह चौहान की मामा वाली छवि और दूसरी तरफ सिंधिया की अपनी लोकप्रियता, बीजेपी पूरी उम्मीद लगाए बैठी है कि ये जोड़ी आगामी चुनाव में पार्टी को एंटी-इनकमबैंसी से पार पाने में मदद करेगी।

सिंधिया समर्थकों को तवज्जो, बीजेपी खेमा नाराज

अब बीजेपी को ये मदद किस कीमत पर मिल रही है, ये समझना भी जरूरी हो जाता है। असल में जिस इलाके में सिंधिया की लोकप्रियता है, वहां पर बीजेपी से ज्यादा उनके चेहरे का बोलबाला है। यानी कि पार्टी से ज्यादा बड़ी सिंधिया की छवि बन गई है। वो छवि ही बीजेपी के अंदर कई नेताओं को नाराज कर गई है। जब से ज्योतिरादित्य सिंधिया बीजेपी में आए हैं, सीट बंटवारे से लेकर प्रत्याशी चुनने तक, हर डिपार्टमेंट में उनकी हस्तक्षेप ज्यादा है। इसके ऊपर सिंधिया समर्थकों को जिस तरह से लगातार ज्यादा तवज्जो दी जा रही है, उसने भी बीजेपी खेमे में असमंजस का माहौल बना दिया है। इसका सबसे उदाहरण ग्वालियर के नगर निगम चुनाव में देखने को मिला गया था जब सिंधिया के साथ होने के बावजूद बीजेपी 50 साल बाद महापौर का चुनाव हार गई थी।

ऐसा इसलिए हुआ था कि क्योंकि सिंधिया के साथ आए कार्यकर्ता, बीजेपी के पुराने कार्यकर्ताओं के साथ अपना समंजस नहीं बैठा पाए। दोनों ही गुटों की दूरियां बढ़ती चली गईं और नतीजा हार के रूप में सामने आया। अब इस बार भी कहने को सिंधिया और शिवराज की जोड़ी बीजेपी के लिए एक्स फैक्टर है, लेकिन जमीन पर कार्यकर्ताओं के अंदर ही पैदा हो रहा गतिरोध बड़े झटके देने का काम कर सकता है। इसके अलावा बीजेपी को सिर्फ शिवराज सरकार की 18 सालों की एंटी इनकमबैंसी का सामना नहीं करना है, बल्कि जमीन पर ज्योतिरादित्य सिंधिया को लेकर भी नाराजगी है।

सिर्फ फायदा नहीं, बीजेपी को सिंधिया दे रहे ये नुकसान

असल में कांग्रेस ग्वालियर-चंबल में ये नेरेटिव सेट करने का काम कर रही है कि सिंधिया ने गद्दारी की है, जनता के जनादेश का अपमान किया है। उनके पूरे राजघराने पर ही इस समय कांग्रेस कार्यकर्ताओं द्वारा टीका-टिप्पणी की जा रही है। कभी आजादी में उनके योगदान के मुद्दे को उठाया जा रहा है तो कभी उनके सियासी धोखों का हवाला दिया जा रहा है। यानी कि सिंधिया के खिलाफ बनाई जा रही नाराजगी का असर बीजेपी को भी उठाना पड़ सकता है। इसके ऊपर पिछले कुछ समय में सिंधिया समर्थक ही उनका साथ छोड़ चले गए हैं। कई तो ऐसे नेता भी शामिल हैं जो 2020 में सिंधिया के कहने पर बीजेपी में शामिल हुए, लेकिन अब जब उन्हें वो सम्मान नहीं मिला, उन्होंने फिर कांग्रेस का दामन थाम लिया। इस लिस्ट में सबसे बड़ा नाम बीजेपी के शिवपुरी जिला उपाध्यक्ष राकेश गुप्ता रहे हैं जो अब कांग्रेस में शामिल हो गए हैं। उनके साथ कई बीजेपी पदाधिकारियों ने भी पाला बदला है।

अब सिंधिया समर्थकों का साथ छोड़ना भी बीजेपी के लिए नुकसान का सौदा बन सकता है। जानकार मानते हैं कि चुनावी मौसम में जिस पार्टी से ज्यादा नेता छोड़कर जाते हैं, उसका जमीन पर नुकसान भी उतना ही रहता है। कर्नाटक चुनाव के दौरान बीजेपी ये देख चुकी है, अब एमपी में ज्योतिरादित्य सिंधिया के कुछ समर्थक भी ऐसा ही कर रहे हैं। यानी कि सिंधिया अगर बीजेपी को फायदा दे रहे हैं तो कुछ हद तक सियासी नुकसान का कारण भी बन रहे हैं।