बिहार की राजधानी पटना में शुक्रवार को लोकसभा चुनाव 2024 में नरेंद्र मोदी के विजयी रथ को रोकने के लिए विपक्षी दलों के दिग्गज जुटे। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में बीजेपी 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव प्रचंड बहुमत से जीत चुकी है। पिछले एक दशक में बीजेपी का ग्राफ कई राज्यों में जबरदस्त तरीके से बढ़ा है, ऐसे में विपक्ष की यह बैठक बहुत महत्वपूर्ण मानी जा रही है।
ऐसा पहली बार नहीं है नेशनल लेवल पर किसी दल के खिलाफ एक गठबंधन बनाने के प्रयास हो रहे हैं। 1980 के दशक के अंत से कई बार विभिन्न राज्यों के दलों ने नेशनल लेवल पर मजबूत पार्टी का मुकाबला करने के लिए हाथ मिलाया है। कई बार केंद्र की सियासत में हिस्सा पाने के लिए फ्रंट्स बनाए गए हैं, लेकिन इस बार का गठबंधन पिछले अन्य गठबंधनों से अलग इसलिए है क्योंकि इसमें कांग्रेस की भागीदार महत्वपूर्ण है।
कांग्रेस भारतीय राजनीति के मुख्य स्तंभों में से एक रही है। इस बार गठबंधन में कांग्रेस के अलावा विभिन्न राज्यों के महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दलों एकसाथ आने का प्रयास कर रहे हैं। इससे पहले 1970 के दशक में कांग्रेस के विरोध में इस तरह सियासी संगठन साथ आए थे, उन संगठनों में कांग्रेस से विद्रोह करने वाले क्षत्रप, जनसंघ के नेता और वामपंथी शामिल थे।
साल 1989 में हुए लोकसभा चुनावों को छोड़ दें तो ऐसे फ्रंट लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद सरकार गठन के लिए बने। जो फ्रंट चुनाव से पहले बने भी वो ज्यादा समय तक टिके नहीं। साल 1989 में राजीव गांधी को सत्ता से बाहर करने के लिए बने नेशनल फ्रंट की शुरुआत सात पार्टियों के साथ आने के साथ शुरू हुई। इनमें कांग्रेस से विद्रोह करने वाले वीपी सिंह का जन मोर्चा, जनता पार्टी, टीडीपी, लोकदल, डीएमके, कांग्रेस (एस) और असम गढ़ परिषद् शामिल थे।
यह एक अलग मैटर है कि वीपी सिंह के नेतृत्व वाली नेशनल फ्रंट सरकार को बीजेपी और लेफ्ट का समर्थन हासिल था। वीपी सिंह की सरकार बीजेपी द्वारा समर्थन वापस लेने से गिर गई और चंद्रशेखर के साथ ज्यादातर सांसदों के जाने की वजह से जनता दल को टूट का सामना करना पड़ा। इसके बाद चंद्रशेखर ने कांग्रेस के समर्थन से अगली सरकार बनाई लेकिन कांग्रेस के समर्थन वापसी के बाद उनकी अल्पमत की सरकार गिर गई।
एनडीए और यूपीए के अलावा किसी को नहीं मिली खास सफलता
90s और 2000 के दशक में कई फ्रंट्स और गठबंधनों को आकार लेते और बाद में ख़त्म होते देखा गया। तब चर्चा का विषय मुख्यतः थर्ड फ्रंट या तीसरा विकल्प था। इसके बाद चाहे 1996 में यूनाइटेड फ्रंट हो, साल 1998 से 2004 में बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए हो या फिर 2004 से 2014 में कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए गठबंधन हो- ये सभी गठबंधन चुनाव परिणाम के बाद बने और इनमें लगातार दल शामिल होते रहे और हटते रहे।
यूनाइटेड फ्रंट का गठन 13 पार्टियों द्वारा बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए किया गया था। इसे कांग्रेस और लेफ्ट ने बाहर से समर्थन दिया था लेकिन यह प्रयोग ज्यादा दिन तक नहीं चल सका। एचडी देवगौड़ा ने यूनाइटेड फ्रंट के मुखिया के तौर पर सरकार चलाई लेकिन उन्हें कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद आईके गुजराल पीएम बने लेकिन फिर कांग्रेस ने उनकी सरकार गिरा दी।
बीजेपी के नेतृत्व वाला एनडीए गठबंधन- सबसे बड़ा गठबंधन था, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी ने कई क्षेत्रीय दलों को कुशलतापूर्वक मैनेज किया और राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और समान नागरिक संहिता जैसे भाजपा के मुख्य एजेंडे को किनारे रखने पर सहमति व्यक्त की। इस गठबंधन में ज्यादातर सपा, बसपा, राजद और लेफ्ट को छोड़कर ज्यादातर क्षेत्रीय दल 1988 से लेकर 2004 तक कभी न कभी हिस्सा बने।
यूपीए का गठन भी 2004 चुनाव परिणाम के बाद बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए किया गया। लेफ्ट ने 2004 में अपना सबसे अच्छा प्रदर्शन किया और बीजेपी को सत्ता से बाहर रखने के लिए यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दिया। यूपीए की पहली सरकार के दौरान सपा के मुलायम सिंह यादव, टीडीपी के चंद्रबाबू नायडू, AIADMK की जयललिता, INLD के ओम प्रकाश चौटाला और JVM के बाबू लाल मरांडी द्वारा थर्ड फ्रंट बनाने की कोशिश की गई लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हुई।
साल 2007 में जयललिता ने राष्ट्रपति चुनाव में बीजेपी के भैरों सिंह शेखावत का समर्थन किया। साल 2008 में सपा ने न्यूक्लियर डील के मसले पर मनमोहन सरकार का समर्थन किया। मुलायम सिंह के हटने के बाद लेफ्ट इस फ्रंट में मायावती को लेकर आया लेकिन यह प्रयोग आगे न बढ़ सका और साल 2009 में हुए लोकसभा चुनाव में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में यूपीए ने शानदार वापसी की।
साल 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भी 11 दलों ने थर्ड फ्रंट बनाने की कोशिश की। इसमें 7 क्षेत्रीय दल और 4 वामपंथी दल शामिल थे। इस फ्रंट का कोई औपचारिक नाम नहीं था। हालांकि 2014 में मोदी लहर में एनडीए के विपक्ष में ज्यादातर दलों को भारी निराशा का सामना करना पड़ा। साल 2018 में भी ऐसे प्रयास हुए लेकिन कुछ फ्रंट शेप नहीं ले सका।
अब बिहार के पटना में कांग्रेस सहित देशभर के क्षेत्रीय दलों का बीजेपी और पीएम मोदी के विरोध में जुटना महत्वपूर्ण माना जा रहा है। खास बात यह है कि इस पटना मीटिंग में जो दल आए हैं- उनकी अपने राज्यों में मजबूत पकड़ है। इन पार्टियों में बंगाल की टीएमसी, बिहार की राजद और जेडीयू, दिल्ली और पंजाब में AAP, महाराष्ट्र में एनसीपी और शिवसेना यूबीटी, तमिलनाडू में डीएमके, झारखंड में जेएमएम और यूपी की सपा शामिल हैं।