सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को जब ‘नन आफ द एबव’ (नोटा) यानी ‘उपरोक्त में कोई नहीं’ पर मुहर लगाने का अधिकार दिया था तो माना था कि यह मतदाता को अपनी नापसंदगी जताने का हक है। उसे अगर चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं आता है तो वह नोटा का बटन दबा कर अपनी नापसंदगी जाहिर कर सकता है, लेकिन ये अधिकार शायद तब तक अधूरा है जब तक उसमें ‘राइट टू रिजेक्ट’ सही मायने में न मिलता हो। यानी अगर किसी चुनाव में सबसे ज्यादा मत नोटा को मिलते हैं तो वहां नए सिरे से चुनाव कराए जाने चाहिए। आधी मांग सुप्रीम कोर्ट 2013 में नोटा का अधिकार देकर स्वीकार कर चुका है और बची हुई मांग की याचिका अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है। जब तक यह लंबित मांग स्वीकार नहीं होगी तब तक नोटा को चाहे जितने वोट मिल जाएं तो उसका असर नहीं दिखेगा और न ही मतदाता को सही मायने में ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार मिलेगा।

अभी नोटा को 99% वोट मिलने पर भी मतदान नहीं होता

दरअसल, अभी अगर 99 फीसद मत भी नोटा को मिल जाएं तो भी उसका असर चुनाव पर नहीं पड़ता है, क्योंकि मौजूदा कानून में एक मत पाने वाला उम्मीदवार ही जीता घोषित होगा। जानकारों के मुताबिक, नोटा को प्रासंगिक बनाना है तो नोटा पर एक निश्चित फीसद में वोट पड़ने का चुनाव पर असर पड़ना सुनिश्चित होना चाहिए। ऐसा होने पर ही राजनीतिक दल स्वच्छ और अच्छी छवि के उम्मीदवार खड़े करने को बाध्य होंगे और उम्मीदवारों में भी नोटा के प्रति भय पैदा होगा।

चुनाव दर चुनाव नोटा का बढ़ता प्रभाव

वर्ष 2013 से हुए विधानसभा चुनावों में नोटा के खाते में काफी वोट गए। कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में तो नोटा वोट रनर-अप प्रत्याशी के बाद तीसरे नंबर पर रहा। 2014 लोकसभा चुनाव में करीब 60 लाख मतदाताओं और 2019 में 65 लाख से ज्यादा मतदाताओं ने नोटा का विकल्प चुना है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि राजनीति में बढ़ते आपराधीकरण को रोकने के लिए नोटा का विकल्प एक कारगर हथियार है। चुनाव दर चुनाव नोटा का प्रभाव बढ़ता जा रहा है, जो यह दिखाता है कि वोटर पहले से ज्यादा जागरूक हैं।

पिछले 10-11 वर्षों में देखें तो अब इसकी भूमिका बढ़ रही है। निश्चित तौर पर इसके दूरगामी असर होंगे और समय के साथ चुनाव आयोग को इसमें कुछ नए संशोधन भी करने पड़ सकते हैं। वह कहते हैं कि एडीआर की पांच वर्षों की रपट के आंकड़ों को देखें तो 2019 के बाद विधानसभा चुनावों में भी नोटा को लाखों लोगों ने चुना है। 60 से 65 लाख की संख्या कोई कम नहीं है और यह दिखाता है कि वोटर अब साफ छवि वाले उम्मीदवारों को ज्यादा पसंद करते हैं।

आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों की संख्या बढ़ी

पिछले पांच वर्षों में राज्य विधानसभा चुनावों और लोकसभा चुनावों में संयुक्त रूप से नोटा को 1.29 करोड़ से अधिक वोट मिले हैं, फिर भी आम और विधानसभा दोनों चुनावों में आपराधिक मामलों वाले उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हुई है। एसोसिएशन फार डेमोक्रेटिक रिफार्म्स (एडीआर) की एक रपट के मुताबिक, पिछले दशक में अपने खिलाफ घोषित आपराधिक मामलों वाले सांसदों की हिस्सेदारी बढ़ रही है। जबकि 2009 में 30 फीसद निर्वाचित सांसदों के खिलाफ आपराधिक मामले थे, जो बढ़ गए।

2009 के लोकसभा चुनावों में एडीआर द्वारा विश्लेषण किए गए 543 विजेताओं में से 162 (30 फीसद) ने अपने खिलाफ आपराधिक मामले घोषित किए थे, 76 (14 फीसद) के खिलाफ गंभीर आपराधिक मामले थे। 2019 में आपराधिक और गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की हिस्सेदारी बढ़कर 43 फीसद और 29 फीसद हो गई।

सबसे ज्यादा नोटा वाली सीटों में पांच बिहार की

वर्ष 2019 में हुए लोकसभा चुनाव के आंकड़े देखे जाएं तो देशभर की जिन 10 लोकसभा सीट पर सबसे ज्यादा नोटा को वोट पड़े, उनमें से पांच संसदीय क्षेत्र बिहार के थे और उसमें भी तीन एससी के लिए आरक्षित थीं। इससे साबित होता है कि राजनीतिक दल उम्मीदवारों के चयन में सावधान नहीं रहे तो नोटा की हैसियत बढ़ सकती है। कई जगह तो ऐसा भी देखा गया है कि दो उम्मीदवारों के बीच जीत का अंतर जितने वोटों का है, उससे ज्यादा वोट नोटा को मिले हैं।