लोकसभा चुनाव में लगातार तीसरी बार देश में एनडीए की सरकार बनी है, पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बनी है। लेकिन यह सरकार एनडीए की है, बीजेपी की अकेली नहीं। इस बार जनता का मैंडेट साफ है, उसे मजबूत विपक्ष भी चाहिए और किसी एक दल को ज्यादा बड़ा बहुमत भी नहीं देना है। पिछले दस सालों में तो ऐसा ट्रेंड बन चुका था कि बीजेपी आसानी से कोई भी बड़ा कदम उठा सकती थी, उसका रास्ता साफ इसलिए रहा क्योंकि उसके बाद अपने दम पर बहुमत था।
प्रचंड बहुंमत से बड़े फैसले, कमजोर बहुमत से?
वो प्रचंड बहुमत ही बिना डर के कई फैसले लेने के लिए सक्षम बना रहा था। इसी वजह से अनुच्छेद 370 हटा था, इसी वजह से तमाम विवादों के बावजूद भी ट्रिपल तलाक के खिलाफ कानून लाया गया, सीएए को लागू कर दिया गया। उन फैसलों के दम पर ही इस बार फिर सरकार बनाने की बात कही जा रही थी। पीएम मोदी लगातार कह रहे थे कि तीसरा कार्यकाल बड़े बदलावों का होगा, बड़े रीफॉर्म का होगा। उन रीफॉर्म में एक देश एक चुनाव, यूनिफॉर्म सिविल कोड और कुछ हद तक जनसंख्या कानून भी शामिल था।
NRC शाह का प्रोजेक्ट, नीतीश-नायडू मानेंगे?
इसके ऊपर अमित शाह ने भी सीएए के बाद NRC को लागू करने की बात कही थी, उन्होंने कहा था कि चरण दर चरण इसे भी लागू किया जाएगा। लेकिन अब वो फैसले तो लेने हैं, लेकिन उनका सहारा देने वाला प्रचंड बहुमत मौजूद नहीं है। इस बार केंद्र में मोदी की नहीं एनडीए की सरकार बनी हुई है। एक ऐसी सरकरा जहां पर क्षेत्रीय दल सिर्फ अपने लिए बड़े मंत्रालय नहीं मांगेंगे, बल्कि इसके ऊपर सरकार की कई योजनाओं में हस्तक्षेप भी करेंगे।
गठबंधन का दौर वापस- पॉलिसी पैरालिसिस?
इस देश में हमेशा से ही एक बात पर बहस छिड़ी रही है- केंद्र में मजबूत सरकार बननी चाहिए या फिर मजबूर सरकार। वो बहस भी इसलिए शुरू हुई क्योंकि ऐसा आरोप लगा कि मजबूर या गठबंधन सरकार के दौरान पॉलिसी पैरालिसिस देखने को मिलता है, सारा वक्त एक दूसरे को मनाने में निकल जाता है। वो नेरेटिव जब ज्यादा मजबूत हो गया था, तभी 2014 में कई दशकों बाद देश ने एक पार्टी को स्पष्ट जनादेश दिया, सरकार बनाने का मौका दिया। दूसरी बार भी वैसा ही देखने को मिल गया, लेकिन इस बार का जनादेश कई साल पीछे ले गया है। देश में फिर गठबंधन सरकारों का दौर आ गया है।
उसी वजह से सवाल उठ रहा है कि इस बार की सरकार पिछली सरकार से कितनी अलग होगी, इस बार क्या बड़े फैसले होते दिखेंगे भी या नहीं? क्या बीजेपी अपने कोर एजेंडे पर आगे बढ़ पाएगी या उसे सिर्फ समाजिक न्याय से जुड़े दूसरे मुद्दों को प्राथमिकता देनी पड़ेगी? नीतीश कुमार की बात हो या फिर चंद्रबाबू नायडू की, दोनों ही गरीबों की राजनीति करते हैं, निजीकरण या बड़े इकोनॉमिक रिफॉर्म्स को लेकर उनका रुख बहुत ज्यादा सकारात्मक नहीं दिखा है।
बड़े आर्थिक सुधारों पर लग जाएगा ब्रेक?
दूसरी तरफ मोदी अपने तीसरे कार्यकाल में कुछ बड़े आर्थिक आधार की नींव डालना चाहते हैं। बात चाहे देश को मैन्युफैक्चरिंग हन बनाने की हो या फिर बड़े जमीन और श्रम कानून लाने की हो, सरकार अपने तीसरे कार्यकाल में कई कड़े कदम उठाना चाहती है। लेकिन जानकार भी मानते हैं कि ऐसे कदमों की रफ्तार पर ब्रेक लग सकता है। अब दूसरे साथियों पर सरकार की निर्भरता ज्यादा रहने वाली है। इसके ऊपर देश की संसद में बीजेपी की स्थिति और ज्यादा कमजोर हो जाएगी।
संसद में हर बिल पास होना और मुश्किल
बीजेपी का जो एजेंडा है, उसे उसका हर सहयोगी दल पसंद नहीं करता है। यह नहीं भूलना चाहिए पंजाब में अकाली जैसे इतने पुराने साथी ने कृषि कानूनों के नाम एनडीए छोड़ने का फैसला कर लिया था। ऐसे में अब तीसरे कार्यकाल में ज्यादा आक्रमक होकर बड़े और कठिन फैसले लेना मुश्किल हो सकता है। एक देश एक चुनाव हो या फिर जनसंख्या कानून, सभी को संसद होकर ही गुजरना होगा। उसी संसद में अब बीजेपी के पास अपने दम पर बहुमत नहीं है, ऐसे में दूसरे दल कितना साथ देंगे, कितना मामला फंसाएगा, इस बात की चिंता मोदी के साथ-साथ दुनिया की कई दूसरी एजेंसियों को भी होने लगी है।
मूडीज तो कह चुका है कि इस बार क्योंकि मोदी को कमजोर बहुमत मिला है, आर्थिक सुधारों की स्पीड पर भी असर पड़ सकता है। जितने रिफॉर्म पिछली बार देखने को मिले, इस बार उनकी रफ्तार कम हो सकती है, सरकार थोड़ा बचकर चल सकती है। अभी इस समय तो सीएए को भी पूरी तरह देश में लागू करना एक चुनौती बना हुआ है। जो नीतीश कुमार इस एनडीए सरकार में शामिल हैं, वे कई मौकों पर कह चुके हैं कि बिहार में सीएए का कोई काम नहीं, इसे लागू नहीं किया जा सकता।
परिसीमन और यूसीसी जैसे एजेंडे बैकफुट पर?
इसी तरह परिसीमन को लेकर भी लंबे समय से चर्चा चल रही है, एनडीए के कई घटक दल ही इसका समर्थन नहीं करते हैं, ऐसे में पीएम मोदी का यह महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट भी ठंडे बस्ते में जा सकता है। इसके अलावा वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सौंप दी है, मोदी के तीसरे कार्यकाल में यह सबसे बड़ी प्राथमिकता माना जा रहा है। इस समय 47 में से 32 दल यूसीसी का समर्थन करते हैं, लेकिन सवाल वही है- क्या नीतीश और चंद्रबाबू नायडू भी बीजेपी की विचारधारा को स्वीकार कर पाएंगे? अगर नहीं तो किसी भी कीमत पर यह दोनों बिल पारित नहीं हो पाएंगे।
नीतीश-नायडू की यह दो मांग माननी पड़ेगी!
अब बीजेपी के सामने चुनौती सिर्फ अपने प्रोजेक्ट्स को पूरा करना नहीं है, बड़ी बात यह है कि दोनों नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू अपने-अपने राज्य के लिए स्पेशल पैकेज की मांग कर रहे हैं। यह मांग ऐसी है जिस वजह से पहले दोनों ही नेता एनडीए से अलग हो चुके हैं। ऐसे में इस बार तो दोनों क्योंकि किंगमेकर की भूमिका में है, ऐसे में मोदी पर दबाव ज्यादा रहने वाला है। इसके अलावा नीतीश जातिगत जनगणना करवाना चाहते हैं जिसक पीएम मोदी ने ज्यादा स्वागत नहीं किया है। लेकिन अब इस गठबंधन वाली सरकार में इस मुद्दे पर भी प्रेशर पॉलिटिक्स होती दिख सकती है।