चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव की तारीखों का ऐलान कर दिया है। पूरा चुनाव 7 चरणों में होगा। 19 अप्रैल 2024 को पहले चरण की वोटिंग होगी जबकि दूसरा चरण 26 अप्रैल, तीसरा 7 मई, चौथा चरण 13 मई, पांचवां 20 मई, छठवां 25 मई और सातवें चरण का मतदान 1 जून को होगा। चुनाव परिणाम 4 जून 2024 को आएंगे। चुनाव की तारीखों के ऐलान के साथ ही जिस पर सबसे ज्यादा नजर होती है वो है प्रत्याशियों के नाम का ऐलान और वोटर आईडी कार्ड। मतदाता पहचान पत्र के बिना चुनाव में वोट नहीं डाला जा सकता है। ऐसे में सबसे पहला सवाल यह उठता है कि आखिर यह वोटर आईडी कार्ड क्या होता है, इसकी शुरुआत कब, कैसे और क्यों हुई, साथ ही देश में सबसे पहले इसे कहां जारी किया गया? आइए जानते हैं इन अभी सवालों के जवाब।

मतदाता पहचान पत्र (Voter Id Card) एक सरकारी दस्तावेज होता है जो चुनाव में वोटिंग करने का अधिकार देता है। यह भारतीय नागरिकता का प्रमाण भी है। चुनाव आयोग 18 साल की उम्र के नागरिकों को वोटर आईडी कार्ड जारी करता है। इसका इस्तेमाल नगरपालिका, राज्य और राष्ट्रीय चुनाव में मतदान के लिए कर सकते हैं।

पहली बार 1993 में पेश किया गया था मतदाता पहचान पत्र

वोटर आईडी कार्ड को मुख्य चुनाव आयुक्त टीएन शेषन (TN Seshan) के कार्यकाल के दौरान पहली बार 1993 में पेश किया गया था। चुनाव आयोग ने 1962 की अपनी जनरल इलेक्शन रिपोर्ट में बताया है कि 1957 के आम चुनाव के बाद कमीशन के पास ये सुझाव आया था कि बड़े और घनी आबादी वाले शहरों में सभी मतदाताओं को फोटो वाले पहचान पत्र दिए जाएं। इससे चुनाव के समय मतदाताओं की पहचान आसानी से हो सकेगी और कोई दूसरा व्यक्ति मतदान नहीं कर सकेगा।

कानून में क्या बदलाव किए गए?

चुनाव आयोग के पहचान पत्र जारी करने के इस सुझाव को भारत सरकार के पास भेजा गया। जिसके बाद सरकार ने एक्शन लेते हुए लोक प्रतिनिधित्व (संशोधन) विधेयक 1958 में फोटो पहचान पत्र जारी करने का प्रावधान कर दिया गया। 27 नवंबर 1958 को विधेयक संसद के निचले सदन में पेश किया गया और 30 दिसंबर 1958 को यह विधेयक कानून बन गया। 2015 के बाद सरकार ने प्लास्टिक के बने कलर वोटर आईकार्ड की शुरुआत की। यह लगभग एटीएम कार्ड की साइज का होता है। चुनाव आयोग ने मई 2000 में इलेक्ट्रॉनिक फोटो आइडेंटिटी कार्ड (EPIC) प्रोग्राम के लिए नए नियम जारी किए थे।

कई मुश्किलों और भारी खर्च के कारण वोटर आईडी कार्ड बनाने का प्रोजेक्ट दोबारा शुरू करने में तीन दशक से ज्यादा का समय लगा। अगस्त 1993 में चुनाव आयोग ने देश के सभी मतदाताओं के लिए फोटो आईडी कार्ड बनाने का आदेश दिया। ऐसा इसलिए किया गया ताकि वोटर लिस्ट में गड़बड़ी न हो और चुनाव में गड़बड़ी रोकी जा सके।

पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर शुरू हुई थी यह परियोजना

मई 1960 में उपचुनाव के लिए कलकत्ता (दक्षिण पश्चिम) संसदीय क्षेत्र में मतदाताओं के लिए फोटो पहचान पत्र जारी करने की एक पायलट परियोजना शुरू की गई थी। दस महीने तक चलाए गए पायलट प्रोजेक्ट में कुल मतदाताओं में से सिर्फ 2 लाख 13 हजार 600 की ही फोटो ली जा सकीं। जिसके बाद सिर्फ 2 लाख 10 हजार मतदाताओं को ही फोटो वाले पहचान पत्र दिए जा सके। इस प्रकार आठ में से तीन मतदाताओं को पहचान पत्र उपलब्ध नहीं कराया जा सका।

मतदाताओं की कुल संख्या के हिसाब से ये आंकड़ा बहुत कम था इसलिए चुनाव आयोग का ये प्रोजेक्ट सफल नहीं कहा गया। सबसे बड़ा कारण ये था कि बहुत सी महिला मतदाता किसी भी फोटोग्राफर, चाहे वो महिला हो या पुरुष से फोटो खिंचवाने के लिए तैयार नहीं थीं। इसके अलावा कुछ मतदाता अपने घर पर नहीं मिले। कुछ कई हफ्तों और महीनों से भी ज्यादा समय से बाहर गए हुए थे। यहां तक कि वोटर कार्ड बांटने के समय भी कुछ मतदाता उस पते पर नहीं मिले जहां उनकी फोटो ली गई थी।

अकेले कलकत्ता क्षेत्र में लगभग 25 लाख रुपये खर्च हुए

अकेले कलकत्ता क्षेत्र के लिए परियोजना पर लगभग 25 लाख रुपये खर्च हुए । इस उद्देश्य के लिए आयोग के पास उपलब्ध मशीनरी पर सावधानीपूर्वक विचार करने और सरकार से परामर्श करने के बाद, चुनाव आयोग इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि कलकत्ता या देश में कहीं और बड़े पैमाने पर सिस्टम को संतोषजनक ढंग से संचालित करना व्यावहारिक नहीं होगा।

यह सफल नहीं हुआ और परियोजना लगभग दो दशकों तक स्थगित रही। सिक्किम में 1979 के विधानसभा चुनावों के दौरान फोटो पहचान पत्र जारी किए गए थे। बाद में इसे असम, मेघालय और नागालैंड जैसे अन्य पूर्वोत्तर राज्यों में लागू किया गया था। 1993 में अंततः फोटो पहचान पत्र पेश किए गए। चुनाव आयोग ने 2021 में इलेक्ट्रॉनिक इलेक्टोरल फोटो आइडेंटिटी कार्ड (e-EPIC) लॉन्च किया।