Lok Sabha Election 2019 के लिए उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल वाला हिस्सा बेहद महत्वपूर्ण हो गया है। सियासत के कई दिग्गज नामों की मौजूदगी से यहां की बिसात एक बार फिर बेहद दिलचस्प हो गई है। वैसे आजादी के बाद से ही हर चुनाव में इस इलाके की भूमिका बेहद रोचक रही है। सियासत में कहावत है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही गुजरता है। 1951-52 से ही लगभग हर चुनाव में वही पार्टी या तो केंद्र की सत्ता में काबिज हुई या किंग मेकर साबित हुई है जिसे पूर्वांचलियों ने समर्थन दिया है। सिर्फ दो बार मामला इसके उलट रहा। इस अंचल में 32 लोकसभा सीटें हैं जिनमें प्रयागराज (इलाहाबाद), फूलपुर, वाराणसी, बलिया और गोरखपुर जैसी हाईप्रोफाइल सीटें शामिल रही हैं। मौजूदा चुनाव में यहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक बार फिर पूर्वांचल के केंद्र यानी वाराणसी से ही चुनाव लड़ने जा रहे हैं। वहीं प्रियंका गांधी चुनाव तो नहीं लड़ रही लेकिन कांग्रेस की वापसी के लिए वे भी इसी इलाके में पूरा दमखम लगा रही हैं। कांग्रेस ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ यहां से पुराने प्रत्याशी अजय राय को ही मौका दिया है। अब तक प्रियंका के यहां से चुनाव लड़ने की अटकलें लगाई जा रही थीं।
अबकी बार मुकाबला सबसे दिलचस्पः पूर्वांचल की अहमियत सभी जानते हैं। इसीलिए पिछले पांच सालों में नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री रहते हुए भी 19 बार अपने संसदीय क्षेत्र का दौरा किया। मौके की नजाकत को देखते हुए कांग्रेस ने भी इस बार पूर्वांचल की कमान प्रियंका गांधी को सौंप दी। दूसरी तरफ गिले-शिकवे भुलाकर सपा-बसपा मिलकर चुनाव लड़ रही हैं। आरएलडी के साथ दोनों के गठबंधन ने इस मुकाबले को अब तक का सबसे दिलचस्प मुकाबला बना दिया है। पिछले चुनाव में एक भी सीट नहीं जीत पाने वाली बहुजन समाज पार्टी यहां 17 सीटों पर दूसरे नंबर पर रही थी, वहीं सपा 12 सीटों पर दूसरे नंबर पर थी। इस बार दोनों मिलकर लड़ रही हैं। ऐसे में मुकाबला कांटे का हो गया है।

क्या कहते हैं यहां के जातिगत समीकरणः वैसे तो देश के अधिकांश इलाकों में राजनीति में जातिगत समीकरण खासे मायने रखते हैं। लेकिन बिहार के बाद जातियों की गोलबंदी का सबसे ज्यादा चलन उत्तर प्रदेश में ही माना जाता है। पूर्वी उत्तर प्रदेश की 26 सीटों पर सवर्णों और ओबीसी की भूमिका बेहद अहम है। वहीं आजमगढ़ और मऊ जैसी सीटों पर दलितों-मुस्लिमों का प्रभाव सवर्ण-ओबीसी से ज्यादा है।
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नौ में से छह प्रधानमंत्री पूर्वांचल सेः देश में सबसे ज्यादा नौ प्रधानमंत्री अकेले उत्तर प्रदेश से सांसद चुने गए थे। इनमें से भी छह अकेले पूर्वांचल से हैं। सिर्फ तीन बार ऐसा मौका आया जब प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश में पूर्वांचल छोड़कर किसी और इलाके से चुना गया हो। इनमें इंदिरा गांधी (रायबरेली), अटल बिहारी वाजपेयी (लखनऊ- अवध क्षेत्र) और चरण सिंह (बागपत-पश्चिमी उत्तर प्रदेश) शामिल हैं। वहीं पूर्वांचल से आने वालों में पंडित जवाहरलाल नेहरू (फूलपुर), लाल बहादुर शास्त्री (इलाहाबाद), वीपी सिंह (फतेहपुर), चंद्र शेखर (बलिया), राजीव गांधी (अमेठी- अब पूर्वी उत्तर प्रदेश में आता है) और नरेंद्र मोदी (वाराणसी) शामिल हैं। इनके अलावा मोरारजी देसाई (सूरत- गुजरात), पीवी नरसिम्हा राव (नांद्याल-आंध्र प्रदेश), एचडी देवेगौड़ा (राज्यसभा- कर्नाटक), इंद्र कुमार गुजराल (राज्यसभा-बिहार) और डॉक्टर मनमोहन सिंह (राज्यसभा-असम) चुने गए। गुलजारी लाल नंदा दो बार अंतरिम प्रधानमंत्री बने, तब वे गुजरात की साबरकांठा सीट से सांसद थे।

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देश के चुनावी इतिहास में पूर्वांचल का दबदबाः सिर्फ दो बार ऐसे मौके आए हैं जब पूर्वांचल ने जिस पार्टी का साथ दिया केंद्र में उसकी सरकार नहीं बनीं।
– 1951-52 में हुए पहले पहले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 469 में से 364 सीटें जीती थीं। तब पूरे अविभाजित उत्तर प्रदेश में कांग्रेस ने विरोधियों का लगभग सूपड़ा साफ ही कर दिया था। उस चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ कानपुर सेंट्रल में प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, गोंडा वेस्ट (अब केसरगंज) में हिंदू महासभा, देवरिया ईस्ट और गाजीपुर ईस्ट में सोशलिस्ट पार्टी और बलिया में निर्दलीय प्रत्याशी के हाथों हार मिली थी। 1971 तक इस अंचल में कांग्रेस की जीत जारी रही।
– 1977 के चुनाव में यहां पहली बार कांग्रेस की हालत पतली हुई। इस चुनाव में पहली बार पूर्वांचल जनता पार्टी के समर्थन में उतरा था और कांग्रेस को अविभाजित उत्तर प्रदेश में सिर्फ छह सीटें मिली थीं। उस चुनाव में कांग्रेस को देशभर में सिर्फ 153 सीटें मिली थीं, वहीं उसके साथ गठबंधन करने वाली पार्टियों को 36 सीटें मिली थीं। यह पहला मौका था जब देश में गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी।
– 1980 में एक बार फिर पूर्वांचल कांग्रेस के समर्थन में उतरा और उसकी झोली में वाराणसी, मिर्जापुर, गाजीपुर, रॉबर्ट्सगंज, इलाहाबाद और गोरखपुर समेत सभी अहम सीटें डाल दीं। इस चुनाव में कांग्रेस सत्ता में आ गई। इस चुनाव में कांग्रेस की सत्ता में वापसी हो गई।
– 1984 के चुनाव में कांग्रेस ने ऐतिहासिक जीत दर्ज की थी। तब भी पूर्वांचल की अधिकांश महत्वपूर्ण सीटें कांग्रेस ने जीती थी और राष्ट्रीय स्तर पर 404 सीटें जीती थीं।
– 1989 का चुनाव अपवाद साबित हुआ। तब विश्वनाथ प्रताप सिंह के नेतृत्व में जनता दल ने 36 से ज्यादा सीटें जीती थीं, वहीं कांग्रेस महज 11 पर सिमट गई थी। लेकिन इसके बावजूद सरकार कांग्रेस की बनी।
– 1991 में दूसरी बार ऐसा हुआ जब पूर्वांचल के साथ के बावजूद कोई पार्टी सरकार नहीं बना पाई हो। उस चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को पूर्वांचल से वाराणसी, गोरखपुर, चंदौली, भदोही, पड़रौना समेत कई सीटों पर जीत दर्ज की थी, तब कांग्रेस को यहां केवल पांच सीटें मिली थीं लेकिन फिर भी केंद्र में कांग्रेस की सरकार बनी।
– 1996 में फिर पूर्वांचल ने बीजेपी का साथ दिया और अटल बिहारी ने सरकार बनाई। हालांकि महज 13 दिनों में सरकार गिर गई। इसके बाद क्षेत्रीय दलों ने मिलकर सरकार बनाई और एचडी देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने। उनके बाद इंद्रकुमार गुजराल ने कुर्सी संभाली। 1998 में बीजेपी ने फिर से इस क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया।
– 2004 में समाजवादी पार्टी ने राज्य में 36 सीटें जीती थीं, जिनमें दर्जनभर पूर्वांचल की थीं। इस चुनाव में बीएसपी ने 19 सीटें जीती थीं। दोनों दलों के समर्थन से कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए की सरकार बनी।
– 2009 में कांग्रेस को पूर्वांचल से ठीक-ठाक समर्थन मिला। पार्टी ने यहां कुशीनगर, गोंडा, बहराइच, श्रावस्ती और फैजाबाद जैसी सीटें जीती थीं। इस चुनाव में केंद्र में यूपीए की ही सरकार बनी थी।

– 2014 में बीजेपी ने ऐतिहासिक प्रदर्शन किया। उत्तर प्रदेश की 80 में से 71 सीटों पर अकेले बीजेपी ने जीत दर्ज की थी। वहीं दो सीटें बीजेपी के साथ मिलकर लड़ने वाली अपना दल के नाम रहीं। उस चुनाव में कांग्रेस को महज दो और सपा को महज पांच सीटें मिल पाईं और केंद्र में बीजेपी की अगुवाई वाले एनडीए ने पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
प्रतिष्ठा की जंग बना गोरखपुरः मार्च 2018 में हुए उपचुनाव में सपा-बसपा गठबंधन ने मिलकर बीजेपी को गोरखपुर जैसी महत्वपूर्ण सीट पर ही धूल चटा दी थी। जिस सीट से योगी आदित्यनाथ लगातार जीतते रहे हों वहां उनके सीएम बन जाने के बाद बीजेपी का हार जाना किसी झटके से कम नहीं था। लेकिन सपा के टिकट पर जो प्रवीण निषाद यहां से चुनाव जीते थे उन्हें ही अब बीजेपी ने अपने पाले में मिला लिया है। ऐसे में एक तरफ गठबंधन का जोर तो दूसरी तरफ से योगी की प्रतिष्ठा है, यहां का मुकाबला योगी के लिए प्रतिष्ठा का सवाल बन गया है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक इस सीट पर करीब 60 साल से गोरखनाथ मठ का कब्जा रहा है। 2009 के चुनाव में बीजेपी इस क्षेत्र में सिर्फ गोरखपुर और बांसगांव सीट ही जीत पाई थी। यहां निषाद, ब्राह्मण, ठाकुर, दलित और पिछड़ों के वोट को ध्यान में रखकर ही पार्टियां प्रत्याशी चुन रही हैं। गोरखपुर सीट पर चार लाख निषाद हैं जिनकी भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है। प्रवीण निषाद, उनके पिता संजय निषाद के अलावा 2014 में योगी के खिलाफ चुनाव हार चुके अमरेंद्र निषाद और उनकी मां राजमति निषाद ने भी बीजेपी ज्वॉइन कर ली है।