साल था 1996, वो समय जब देश अस्थिरता के एक भयंकर दौर से गुजर रहा था। तब सरकार गिरना कोई घटना नहीं बल्कि साजिश मानी जा रही थी, सरेआम सत्ता से बेदखल करने का खेल चल रहा था, उस खेल की सूत्रधार कांग्रेस थी और शिकार बने थे एचडी देवगौड़ा और फिर इंद्र कुमार गुजराल। इतिहास के पन्नों में आज हम झाकेंगे उस प्रधानमंत्री की जिंदगी में जिसे कहना चाहिए तोहफे में ही पीएम पद मिल गया था।

सरकारें गिरने का खेल जब हुआ शुरू

1996 के लोकसभा चुनाव के नतीजे आए, बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनी, उसके खाते में 161 सीटें गईं, कांग्रेस अपने दम पर 141 सीटें जीत पाई। उस समय कांग्रेस ने सरकार बनाने की मंशा जाहिर ही नहीं की थी, उसके दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। इस वजह से दूसरे दलों को साथ लाने की जद्दोजहद अटल बिहारी वाजपेयी ने की और वे सरकार बनाने में कामयाब हो गए। लेकिन राजनीति का खेल ऐसा था कि वो समर्थन अटल बिहारी वाजपेयी को सिर्फ 13 दिन के लिए ही पीएम बना सका और फिर उनकी सरकार गिर गई।

अब देश फिर अस्थिरता के दौर में चला गया, सभी के मन में एक सवाल- किसकी सरकार बनेगी, कौन देश की बागडोर संभालेगा। काफी माथापच्ची देखने को मिली और कांग्रेस के समर्थन से एचडी देवगौड़ा प्रधानमंत्री बना दिए गए। एक तरफ देश में नया पीएम बना, दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी सीताराम केसरी के पास चली गई। अब केसरी का अध्यक्ष बनना देश में एक और बड़ा सियासी भूचाल लाने वाला था।

324 दिन बीत चुके थे, देवगौड़ा देश के पीएम बन सरकार चला रहे थे, कांग्रेस ने भी अपना समर्थन दे रखा था, सभी को लगा कि अब स्थिरता आ चुकी है, सत्ता का आने का खेल खत्म हो चुका है। लेकिन जो सोचा, सब गलत साबित हुआ और सीताराम केसरी ने ऐलान कर दिया कि कांग्रेस देवगौड़ा सरकार से अपना समर्थन वापस ले रही है। वापस भी ऐसे समय में लिया गया जब संसद में बजट पेश किया जा रहा था। कांग्रेस ने दो टूक कह दिया- अपना नेता बदलो वरना हम समर्थन वापस ले लेंगे।

केसरी की चाल और गुजराल का खुला रास्ता

अब स्थिति विकट थी, देश एक बार फिर समय से पहले चुनाव होते नहीं देखना चाहता था। लेकिन ये भी समझ नहीं आ रहा था कि अब किसे प्रधानमंत्री बनाया जाए। अब एक तरफ नए पीएम की खोज चल रही थी, दूसरी तरफ कयास लग रहे थे कि केसरी ने ऐसा खेल क्यों किया। अब राजनीति है तो अटकलें लगना लाजिमी था। ऐसे में देवगौड़ा की पीएम कुर्सी जाने और केसरी के दांव के दो कारण सामने आए थे। पहली थ्योरी ये चल पड़ी कि सीताराम केसरी को ऐसी खबर मिली थी कि देवगौड़ा की सरकार उन्हें फर्जी मामले में फंसा सकती है। इसके ऊपर उन्हें ऐसा भी लगने लगा था कि कांग्रेस को फिर सत्ता में लाने की सारी जिम्मेदारी उनके कंधों पर है तो बस साम दाम दंड वाली थ्योरी पर आगे बढ़ते हुए उन्होंने सरकार गिरवा दी।

चुनाव का पूरा शेड्यूल यहां देखिए

अब इसी कहानी का एक दूसरा एंगल भी उस समय खूब प्रचलित हुआ। कहा गया कि सीताराम केसरी खुद प्रधानमंत्री बनने के सपने देखने लगे थे। कहा जाता है कि उस समय केसरी को उनकी पिछड़ी जाति की वजह से ज्यादा सम्मान नहीं मिलता था। कांग्रेस में भी सारे बड़े पद क्योंकि बड़ी जातियों के पास थे, केसरी थोड़ा भेदभाव जैसा महसूस करते थे। उन्हें ऐसा लगता था कि अगर हाथ में सत्ता आ गई तो सभी सम्मान देंगे, उनका भी कद बड़ा हो जाएगा। खैर केसरी सिर्फ ऐसा सोच रहे थे, उनका पीएम बनना तब नामुमकिन जैसा था। विरोधी विरोध करते तो समझ सकते थे, कांग्रेस के अपने नेता सीताराम केसरी को बतौर प्रधानमंत्री कभी स्वीकार नहीं करने वाले थे।

प्रणब मुखर्जी, शरद पवार, अर्जन सिंह और जीतेंद्र प्रसाद कांग्रेस के ही कुछ दसरे कद्दावर नेता थे जो खुद पीएम बनने के सपने देखते थे, लेकिन केसरी की दावेदारी को कभी स्वीकार नहीं करते। ऐसे कांग्रेस समझ चुकी थी कि खुद सत्ता का स्वाद चखना मुश्किल है, ऐसे में फिर यूनाइटेड फ्रंट को ही समर्थन देने पर सहमति बन चुकी थी। अब ये सहमति ही उस शख्स की दावेदारी को मजबूत करने वाली थी जिसका जन्म पाकिस्तान में हुआ, जिसने भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया और फिर जिसने देश के प्रधानमंत्री बनने तक का सफर तय किया।

पाकिस्तान की पैदाइश, भारत के लिए काम

इंद्र कुमार गुजराल का जन्म 4 दिसंबर 1919 को पाकिस्तान के पंजाब में हुआ था। लेकिन बाद में उनका पूरा परिवार भारत आया, उनके माता-पिता स्वतंत्रता सेनानी थे जिन्होंने पंजाब के संग्राम में अहम भूमिका निभाई। गुजराल का बचपन पढ़ाई करने में ही गुजरा, खूब तेज थे, एम.ए, बी.कॉम, पी.एच.डी जैसी तमाम डिग्रियां उन्होंने हासिल की। दिल्ली नगर निगम से राजनीति में कदम रखा और फिर लंबे समय तक इंदिरा गांधी के करीबी भी रहे। कांग्रेस के साथ उनका सफर 1980 को समाप्त हुआ और फिर जनता दल में वे शामिल हो गए।

विदेश नीति के लिए प्रख्यात इंद्र कुमार गुजराल अपनी डॉक्ट्रिन थ्योरी के लिए जाने जाते थे। वे मानते थे कि पूरी दुनिया में अगर भारत को अपना सिक्का जमाना है तो पड़ोसियों के साथ रिश्ते ठीक करना जरूरी है। 1996 में जब अस्थिरता का दौर चल रहा था, गुजराल विदेश मंत्री की भूमिका निभा रहे थे। यानी कि गुजराल राजनीति में सक्रिय थे, बड़े नेता भी मान सकते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री बनने वाले थे, ऐसा ना उनकी लकीरों में दिख रहा था और ना ही उन्होंने खुद शायद ऐसी महत्वकांक्षा पाली थी।

जब टक्कर ऐसी कि हर नेता का कटा पत्ता

तब यूनाइटेड फ्रंट में प्रधानमंत्री के उम्मीदवार लालू प्रसाद यादव थे, मुलायम सिंह यादव थे, जीके मूपनार भी बताए गए, लेकिन किसी ने गुजराल का नाम तक नहीं लिया। बैठकों का दौर चलता रहा, बहस बढ़ती गई और कई नेताओं की धीरे-धीरे महत्वकांक्षा सामने आने लगी। मुलायम यूपी से सबसे ज्यादा सीटें जीतकर आए थे, सरकार में रक्षा मंत्री भी थे, ऐसे में उनका पीएम बनना आसान था। दूसरी तरफ लालू भी बिहार की सियासत में पूरी तरह चमक चुके थे, पि।पिछड़ों के बड़े चेहरे थे, ऐसे में वे भी पीएम बनना चाहते थे।

लेकिन मजे की बात ये थी कि मुलायम, लालू को नहीं चाहते थे, लालू, मुलायम को पसंद नहीं कर रहे थे। इस सियासी लड़ाई की वजह से दोनों का ही पत्ता कट गया। लेकिन लालू तेज थे, उन्हें पता था कि वे खुद अगर पीएम नहीं बन सकते तो अपने करीबी को वो कुर्सी जरूर सौंपेंगे। उसी समय नाम आया इंद्र कुमार गुजराल का। मुलायम अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने गुजराल का विरोध किया, बाकी किसी को उनसे कोई शिकायत नहीं थी। हैरानी की बात ये रही कि जिन बैठकों में पीएम पद पर मंथन चल रहा था, गुजराल उनमें शामिल थे। लेकिन जब उन्हीं के नाम पर मुहर लगी, वे एक कमरे सो रहे थे।

नींद टूटी और देश के पीएम बन गए

असल में गुजराल थक चुके थे, कई घंटों की मीटिंग के बाद भी कोई फैसला नहीं हुआ था, ऐसे में वे मीटिंग छोड़कर ही चले गए। लेकिन जैसे ही उनके नाम का ऐलान हुआ, टीडीपी के एक सांसद भागकर गए, उन्होंने गुजराल को उठाया और नेताओं का फरमान सुना दिया। इंद्र कुमार गुजराल देश के अगले प्रधानमंत्री बना दिए गए थे जिनका नीयति ने सिर्फ 11 महीनों तक साथ दिया और फिर उसके बाद सत्ता का खेल फिर वैसा ही शुरू हो गया।