लोकसभा और विधानसभा के चुनाव में एक उम्मीदवार एक साथ अधिकतम दो सीट से चुनाव लड़ सकता है। पर उसे जमानत राशि दोनों सीट के लिए अलग-अलग जमा करनी जरूरी है। लेकिन 1996 से पहले ऐसा कोई प्रतिबंध नहीं था। कोई उम्मीदवार कितनी भी सीट से एक साथ लोकसभा या विधानसभा चुनाव लड़ सकता था। अनावश्यक उम्मीदवारों की भीड़ पर अंकुश लगाने के लिए चुनाव आयोग की सिफारिश पर सरकार ने लोकप्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 33 में 1996 में संशोधन करके अधिकतम दो सीट का प्रावधान लागू कर दिया।
एक दौर था जब कुछ उम्मीदवार कई सीट से एक साथ और बार-बार लोकसभा व विधानसभा चुनाव लड़ने और हारने के लिए देश भर में प्रसिद्ध थे। ग्वालियर के मदन लाल धरती पकड़, कानपुर के भगवती प्रसाद दीक्षित घोड़े वाला और बरेली के काका जोगिंदर सिंह की शोहरत किसी भी लोकप्रिय राजनेता से कम नहीं थी। ये तीनों विधानसभा और लोकसभा ही नहीं राष्ट्रपति तक के चुनाव में ताल ठोकते और हारते थे। एक साथ कई सीटों से नामांकन करते थे। मदन लाल धरती पकड़ ने ग्वालियर में माधवराव सिंधिया के खिलाफ कई बार चुनाव लड़ा।
घोडे पर चलने वाले कानपुर के भगवती प्रसाद दीक्षित रायबरेली से कई बार इंदिरा गांधी के खिलाफ चुनाव लडे़। उन्होंने अपने जीवन में लगभग 300 बार चुनाव लड़ा। इंदिरा गांधी उन्हें अच्छी तरह जानती-पहचानती थी। एक बार जब रायबरेली से भगवती प्रसाद दीक्षित ने लोकसभा चुनाव में नामांकन नहीं किया तो इंदिरा गांधी को भी हैरानी हुई। वे कानपुर से चुनाव प्रचार करके सड़क मार्ग से जा रही थीं तभी दीक्षित जी रास्ते में मिल गए।
अपनी कार रोककर इंदिरा गांधी ने रायबरेली से पर्चा दाखिल न करने का कारण पूछा। दीक्षित ने जमानत राशि का जुगाड़ न होने की बात कही तो इंदिरा ने अपने पास से उन्हें 250 रुपए देते हुए कहा कि वे उनके मुकाबले मैदान में नहीं होंगे तो अच्छा नहीं रहेगा। दीक्षित ने इसके बाद रायबरेली से भी नामांकन दाखिल कर दिया था।
बरेली के जोगिंदर सिंह काका तो साइकिल पर अपना प्रचार करते थे और मतदाताओं से अनुरोध करते थे कि उन्हें वोट न दें। वे भी कई दशक तक भारतीय चुनाव पटल पर सक्रिय रहे। लोकसभा, विधानसभा दोनों चुनाव एक साथ लड़ने वाले नेताओं की भी लंबी सूची है। मायावती और अजित सिंह भी इस सूची में शामिल हैं। मायावती ने 1989 में बिजनौर से विधानसभा और लोकसभा दोनों चुनाव जीते थे।
इससे पहले वे कैराना में 1984 का आम चुनाव और बाद में हरिद्वार व बिजनौर के लोकसभा चुनाव में हारी थीं। लगातार तीन बार हार के बाद उन्हें 1989 में बिजनौर से दोहरी सफलता मिली थी। हालांकि विधानसभा से उन्होंने इस्तीफा दे दिया था। अजित सिंह ने भी 1989 में बागपत से लोकसभा और इसी संसदीय क्षेत्र की छपरौली सीट से विधानसभा चुनाव एक साथ लड़ा था।
दोनों चुनाव जीतने के बाद उन्होंने मुलायम सिंह यादव के मुकाबले जनता दल के भीतर मुख्यमंत्री पद के लिए भी दावा पेश किया था। विधायकों की राय भी ली गई थी जिसमें अजित सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा था। इसके बाद उन्होंने विधानसभा सीट से त्यागपत्र दे दिया था और केंद्र में वीपी सिंह की सरकार में मंत्री बने थे।