लोकसभा चुनाव को लेकर एग्जिट पोल्स के आंकड़े जारी कर दिए गए हैं। तमाम एग्जिट पोल एक बार फिर मोदी सरकार बनाते दिख रहे हैं। अब मोदी वापस आ रहे हैं, इस बात का अनुमान तो लगाया गया है, लेकिन इंडिया हार रहा है, ये भी एग्जिट पोल स्पष्ट बता रहे हैं। इंडिया गठबंधन कह जरूर रहा था कि उसे 300 से ज्यादा सीटें मिल रही हैं, लेकिन नतीजों से पहले आने वाले सर्वे उसे 150 सीटें भी मुश्किल से देते दिख रहे हैं। अब विपक्ष एकजुट था, मुद्दों की कोई कमी नहीं दिखी, आखिर फिर भी क्यों वो इतनी बुरी तरह हारता हुआ दिख रहा है? अगर एग्जिट ही एग्जैक्ट पोल साबित होते हैं तो इंडिया गठबंधन के हारने के 8 बड़े कारण यह हैं-

राम मंदिर पर नकारात्मक प्रचार

अयोध्या में इस साल राम मंदिर का प्राण प्रतिष्ठा कार्यक्रम किया गया था। पूरे देश में उत्साह का माहौल था, ज्यादातर लोग इस बात से खुश थे कि कई दशकों बाद अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनकर तैयार हुआ। बीजेपी क्योंकि शुरुआत से राम मंदिर आंदोलन के साथ जुड़ी रही, उसे भी मंदिर बनने का क्रेडिट एक वर्ग द्वारा लगातार दिया गया। लेकिन इंडिया गठबंधन के नेताओं ने जिस तरह से इस राम मंदिर कार्यक्रम को लेकर उदासीनता का माहौल बनाया, जिस तरह से उस कार्यक्रम से दूरी बनाई गई, उसने चुनावी मौसम में उसके लिए बड़े नुकसान का काम किया।

कांग्रेस ने यह कहकर निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया था कि वो बीजेपी के किसी भी कार्यक्रम में शामिल नहीं होने वाली। अखिलेश यादव ने इसलिए मना कर दिया क्योंकि उन्हें ‘अनजान’लोगों से निमंत्रण मिला। ममता बनर्जी ने अपनी धर्मनिर्पेक्ष छवि बनाए रखने के लिए उस कार्यक्रम में ना जाने का फैसला किया। अब इंडिया के तमाम नेताओं ने इसी तरह से दूरी बनाई और बीजेपी ने चुनाव में उसका पूरा फायदा उठाया। साफ नेरेटिव सेट किया गया- एक विशेष समुदाय के वोट के लिए दूसरे कई समुदायों को पूरी तरह नजरअंदाज कर दिया गया। अब एग्जिट पोल के आंकड़े बताते हैं कि उत्तर भारत के साथ-साथ दक्षिण में भी कुछ जगहों पर विपक्ष को इस नराकात्मक प्रचार का नुकसन उठाना पड़ सकता है।

सहयोगियों की बेवफाई

इंडिया गठबंधन जब बना था, तब उसमें कई बड़े नेता शामिल थे। एक नाम बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का भी रहा जो उस एकता के सूत्रधार तक बताए गए। लेकिन चुनावी तारीखों के ऐलान से ठीक पहले नीतीश कुमार ने सबसे बड़ा खेल करते हुए पाला ही बदल लिया और वे वापस एनडीए के साथ चले गए। बिहार में यह नहीं भूलना चाहिए 2015 में महागठबंधन ने ही बीजेपी का सूपड़ा साफ किया था। ऐसे में अगर लोकसभा चुनाव में नीतीश-लालू और कांग्रेस की तिकड़ी रहती तो आंकड़े कुछ और बेहतर दिख सकते थे।

इसी तरह अपने इंडिया गठबंधन से नाराज होकर ही ममता बनर्जी ने भी बड़ा खेल किया। बंगाल जैसे महत्वपूर्ण राज्य में सिर्फ सीट शेयरिंग पर सहमति नहीं बनने की वजह से सीएम ने अकेले ही लड़ने का ऐलान कर दिया। उस वजह से कांग्रेस और लेफ्ट को अपने दम पर ही चुनावी मैदान में उतरना पड़ा। जानकार मानते हैं कि लेफ्ट-कांग्रेस को जो भी थोड़ा बुहत वोट जाता, वो भी बीजेपी की तरफ शिफ्ट कर गया। ऐसे में ममता की एकला चलो नीति इंडिया गठबंधन के लिए मुफीद साबित होती नहीं दिख रही है।

उत्तर प्रदेश में भी इंडिया गठबंधन को जयंत चौधरी ने बड़ा झटका देने का काम किया था। पश्चिमी यूपी में बीजेपी के खिलाफ विपक्ष के लिए जयंत एक बड़ा हथियार बन सकते थे, उनके साथ सीटों को लेकर मंथन भी हो गया था। लेकिन ऐन वक्त पर कुछ असहमतियों की वजह से उन्होंने भी एनडीए के साथ जाना ही सही समझा और पश्चिमी यूपी की कई सीटों पर समीकरण बदल गए। वैसे बेवफाई सिर्फ अलग होने वाली नहीं रही, कई मौकों पर साथ रहकर भी विचारों में ऐसे टकराव हुए कि उसका नुकसान भी चुनाव में उठाना पड़ा सकता है। उदाहरण के लिए दिल्ली में आप-कांग्रेस का साथ होना और पंजाब में अलग लड़ना। केरल में लेफ्ट-कांग्रेस का अलग लड़ना और बंगाल में साथ।

काफी कम दिखीं संयुक्त रैलियां

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस चुनाव में कुल 181 रैलियों को संबोधित किया, उनकी तरफ से कई रोड शो भी किए गए। जिस प्रकार की सक्रियता उन्होंने पूरी चुनावी मौसम में दिखाई, उसने भी बीजेपी के पक्ष में हवा बनाने में बड़ी भूमिका निभाई। दूसरी तरफ इंडिया गठबंधन को हर पड़ाव पर सिर्फ चुनौतियों का ही सामना करना पड़ा। पहले सीट शेयरिंग को लेकर विवाद बढ़ता चला गया, उसके साथ संयुक्त रैलियों की जब बात आई, उसमें काफी कमी देखने को मिली। राहुल-अखिलेश ने साथ में कितनी की सभाएं की, बिहार में तेजस्वी को राहुल का साथ कम बार ही मिलता दिखा। इसी तरह ममता बनर्जी ने वैसे इंडिया गठबंधन का समर्थन किया, लेकिन दूसरे राज्यों में किसी भी विपक्षी प्रत्याशी के लिए कोई प्रचार नहीं किया।

पूरे इंडिया गठबंधन की संयुक्त रैलियां तो सिर्फ दिल्ली और मुंबई में ही देखने को मिली। ऐसे में इंडिया गठबंधन कागज पर जरूर एक था, लेकिन जनता के सामने वो एकता कब बार ही निखरकर सामने आ पाई। दूसरी तरफ बीजेपी का ऐसा प्रचार रहा जहां पर पीएम मोदी ने खुद ही कई ऐसी जगहों पर भी रोड किया जहां पहले कभी देखने को नहीं मिला। उदाहरण के लिए पटना की सड़कों पर उन्होंने कई घंटों का प्रचार किया। इसी तरह दक्षिण में भी अलग-अलग कार्यक्रम के जरिए खुद को खूब खपाया।

तुष्टीकरण नेरेटिव में फंसना

इस बार के लोकसभा चुनाव में विपक्ष को कथित तुष्टीकरण करना भी भारी पड़ गया है। कथित इसलिए क्योंकि ऐसा नेरेटिव बीजेपी ने ही सेट करने का काम किया। बात अगर राम मंदिर की हो, विपक्ष का ना जाना उसका निजी फैसला था, लेकिन पीएम मोदी ने इसे एक खास वर्ग से जोड़ने का काम कर दिया। बीजेपी ने लगातार बोला कि मुस्लिमों के वोट के लिए हिंदुओं को नजरअंदाज किया गया। इसी तरह पश्चिम बंगाल में इस बार सीएए के मुद्दे ने जमीन पर ध्रुवीकरण बढ़ाने का काम किया।

यहां भी वही था, ममता बनर्जी कहती रहीं कि चाहे कुछ भी हो जए, सीएए को लागू नहीं होने देंगी। बीजेपी ने इसे फिर मुस्लिम प्रेम से जोड़ दिया और एग्जिट पोल के आंकड़े बता रहे हैं कि जनता ने भी शायद ऐसा ही महसूस किया है। इसी तरह तेजस्वी यादव का मछली खाना भी चुनावी मौसम में एक बड़ा मुद्दा बन गया था। आरोप लगा कि नवरात्रि के दिनों में आरजेडी नेता ने मासाहारी खाने का सेवन किया, इसे पीएम मोदी ने मुगल मानसिकता तक बता दिया था। वहां भी यही तुष्टीकरण का आरोप लगा और विपक्ष उस नेरेटिव में फंसता भी दिखा।

इसके अलावा कांग्रेस के घोषणा पत्र ने भी तुष्टीकरण के आरोपों को बल देने का काम किया था। उसमें लिखा था कि अल्पसंख्यक समुदायों को भी लाभ दिया जाएगा, इस प्वाइंट को भी बीजेपी ने पूरी तरह भुना लिया और संदेश दिया गया कि कांग्रेस सरकार बनाने पर सिर्फ एक समुदाय के लिए काम करेगी। ज्यादा बच्चे वाले लोगों में संपत्ति बांट दी जाएगी। इंडिया की समस्या यह रही कि वो इसका मजबूत काउंटर नहीं खोज पाए।

कोई पीएम उम्मीदवार ना होना

इस चुनाव में इंडिया गठबंधन ने एक तय रणनीति के तहत किसी भी पीएम उम्मीदवार का ऐलान नहीं किया। यह एक बहुत बड़ी चूक भी मानी जा रही है क्योंकि इस वजह से देश की जनता को मोदी के खिलाफ कोई विकल्प नजर ही नहीं आया। बीजेपी की तरफ से साफ था कि मोदी को ही फिर पीएम बनना है, लेकिन इंडिया खेमे में सपने तो पीएम बनने के कई ने देखे, लेकिन किसी के भी नाम पर मुहर नहीं लगाई गई। राहुल गांधी से लेकर अरविंद केजरीवाल तक, ममता बनर्जी से लेकर मल्लिकार्जुन खड़गे तक कई नामों की चर्चा चली।

लेकिन इंडिया गठबंधन को इस बात का अहसास था कि अगर पहले ही नाम का ऐलान हुआ, यह एकता ही खत्म हो जाएगी, सारी पार्टियां बिफर जाएंगी और असल नतीजों से पहली हार हो जाएगी। इसी वजह से पीएम उम्मीदवार नहीं बताया गया और सभी को एक ही स्टैंड रहा- नतीजों के बाद फैसला लिया जाएगा। लेकिन एग्जिट पोल के आंकड़े बताते हैं कि यह असमंजस की स्थिति जनता को भी कन्फ्यूज कर गई और उसने इस वजह से भी बीजेपी और मोदी के चेहरे के साथ जाने का फैसला किया।

माफियाओं के लिए सॉफ्ट कॉर्नर

उत्तर प्रदेश के बांदा जेल में माफिया मुख्तार अंसारी की मौत को लेकर काफी बवाल हुआ था। जिस मौत को डॉक्टरों ने हार्ट अटैक बताया, विपक्ष के कई नेताओं ने जांच की बात कर दी। कुछ नेताओं ने जिस तरह से सोशल मीडिया पर मुख्तार को श्रद्धांजलि दी, उसने समाज के एक वर्ग को परेशान कर दिया। इस समय उत्तर प्रदेश में कानून व्यवस्था बड़ा मुद्दा बना हुआ है, उसके नाम पर मोदी-योगी वोट मांग रहे हैं। उसी बीच जब एक अपराधी को लेकर सहानुभूति दिखाई गई, वो इंडिया गठबंधन के तमाम बड़े नेताओं द्वारा, ना चाहते हुए भी इसका कुछ असर चुनाव पर पड़ा है। लेकिन इसका सही आकलन एग्जिट पोल से नहीं असल नतीजों से हो पाएगा।

मुख्तार को लेकर इंडिया गठबंधन की टीका-टिप्पणी को भी मुस्लिम वोट से ही जोड़कर भी देखा गया। यह नहीं भूलना चाहिए कि मुख्तार मुस्लिमों के बीच लोकप्रिय था, मऊ के अलावा वाराणसी, जौनपुर, चंदौली, आजमगढ़ और बलिया जैसे इलाकों में भी उसकी अच्छी खासी पकड़ देखने को मिलती थी। जानकारों ने माना इस वजह से भी मुख्तार को लेकर इंडिया का सॉफ्ट कॉर्नर रहा, लेकिन एग्जिट पोल के आंकड़े बताते हैं कि जनता इस रवैये से ज्यादा खुश नहीं हुई।

पाकिस्तान से मिला कथित समर्थन

इस चुनाव में पाकिस्तान का हस्तक्षेप भी काफी ज्यादा देखने को मिल गया। अब किसकी सरकार देश में बनती है, उसका असर तो वैसे भी पाकिस्तान पर पड़ता ही है, लेकिन इसके ऊपर इस बार पाकिस्तान के ही कुछ नेताओं ने खुलकर विपक्ष के नेताओं को लेकर बयानाजी कर दी। फवाद चौधरी ने पहले राहुल गांधी के भाषण की तारीफ की, फिर अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी को शुभकामनाएं दे डालीं। अब सीएम केजरीवाल ने जरूर उस बयान से दूरी बनाने की कोशिश की, लेकिन चुनावी मौसम में हर बयान आग की तरह फैलता है और यहां तो बात पाकिस्तान की हो रही थी।

पिछले चुनाव में पाकिस्तान के कुछ बयानों ने विपक्ष का खेल बिगाड़ दिया था। इस बार फिर वैसी ही स्थिति बनती दिख रही है। पाकिस्तान तो कहने को मोदी विरोध की वजह से विपक्षी नेताओं का समर्थन किया, लेकिन भारत के चुनाव में इसका रिवर्स इफेक्ट देखने को मिला और फायदा सीधे बीजेपी को गया। बीजेपी ने पूरे इंडिया गठबंधन को ही पाकिस्तान समर्थक बता दिया और नेरेटिव सेट किया कि पाक समर्थन मतलब देश विरोधी। अब कितना नुकसान उठाना पड़ेगा, यहा तो 4 जून को साफ हो जाएगा।

विपक्षी नेताओं की देश विरोधी बयानबाजी

इस चुनाव में एक बार फिर बेलगाम जुबान ने भी इंडिया गठबंधन को बड़ा नुकसान पहुंचाने का काम किया है। एक तरफ पंजाब के पूर्व सीएम चरणजीत सिंह चन्नी ने कह दिया कि पुलवामा हमला असल में सियासी स्टंट था, वही फारूक अब्दुल्ला ने बोला कि पाकिस्तान ने भी चूड़ी नहीं पहन रखी। एक कदम आगे बढ़कर विपक्षी नेता विजय वडेट्टीवार ने कह दिया कि – हेमंत करकरे की मौत आतंकी अजमल कसाब ने नहीं बल्कि RSS से जुड़े एक पुलिस अधिकारी द्वारा चलाई गई गोली से हुई थी।

कांग्रेस के सैम पित्रोदा ने भी इंडिया गठबंधन को नुकसान देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। बात चाहे विरासत टैक्स की हो या फिर काले रंग को लेकर दिए गए विवादित बयान की, उनकी वजह से बीजेपी को आखिरी के चरणों में काफी फायदा मिलता दिखा। पीएम मोदी ने अपनी रैलियों ने दोनों ही मुद्दों को प्रमुखता से जगह दी। अब एग्जिट पोल बता रहे हैं कि इंडिया को भारी नुकसान उठाना पड़ा है, यानी कि 2019 की तरह 2024 में भी विवादित बयानों ने मोदी की राह को आसान कर दिया।