लोकसभा चुनाव को लेकर कांग्रेस में अभी भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है, रायबरेली और अमेठी सीट पर सस्पेंस बरकरार है। पहले कहा गया था कि सीईसी की बैठक में राहुल और प्रियंका गांधी के चेहरे पर मुहर लग जाएगी, लेकिन फिर खेल हुआ और गेंद कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के पाले में चली गई। खड़गे तो सबसे ज्यादा सस्पेंस बनाकर चल रहे हैं, कह रहे हैं कि नामांकन की तारीख से पहले सभी को नाम पता चल जाएंगे।

अब नाम फाइनल नहीं हुआ, ये हर कोई जान चुका है, लेकिन यहां समझने की कोशिश करते हैं वो चुनौतियां जिनकी वजह से अभी तक कांग्रेस असमंजस से बाहर नहीं निकल पा रही है। कहने को राहुल और प्रियंका कांग्रेस के लिए सबसे बड़े चेहरे हैं, लेकिन फिर भी दोनों के सामने पहाड़ जैसी चुनौती है। ऐसी ही 4 चुनौतियों के बारे में यहां आपको बताते हैं।

चुनौती नंबर 1- रायबरेली में कांग्रेस का वोट शेयर

रायबरेली कांग्रेस की परंपरागत सीट रही है, यहां पर गांधी परिवार का वर्चस्व पिछले कई सालों से बना हुआ है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी के उदय के साथ ही रायबरेली में कांग्रेस की पकड़ कमजोर होती चली गई है। वोट शेयर के मामले में देश की सबसे पुरानी पार्टी अब रायबरेली में कमजोर होती दिख रही है, आंकड़े इस बात की पूरी तरह गवाही दे रहे हैं। 2009 में जब यूपीए की दूसरी बार सरकार बनी थी, तब रायबरेली में सोनिया गांधी को 72.20% वोट मिले थे, उस समय भाजपा का वोट शेयर मात्र 3.80 प्रतिशत था। लेकिन 5 साल बाद यानी कि 2014 में जब मोदी लहर ने सारे रिकॉर्ड ध्वस्त कर दिए, रायबरेली में भी उसका कुछ असर देखने को मिला।

कांग्रेस का वोट शेयर 72.20 प्रतिशत से गिरकर 63.80% पर आ गया, वहीं बीजेपी को 21.10 वोट मिल गए। 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते कांग्रेस की स्थिति रायबरेली में और ज्यादा कमजोर हो गई, सोनिया गांधी ने कहने के लिए अपनी वो सीट बचा ली, लेकिन वहां पर उनका वोट शेयर सिर्फ 55.80 फीसदी रह गया, बीजेपी का वोट प्रतिशत 38.40 तक पहुंच गया। दूसरे शब्दों में बोले तो 10 साल के अंदर में रायबरेली में कांग्रेस के वोट शेयर में 16 परसेंट की बड़ी गिरावट देखने को मिली है, वही बीजेपी ने 35% की बंपर बढ़त हासिल की है।

चुनौती नंबर 2- अमेठी में बीजेपी की बढ़ती ताकत

अब अमेठी की बात करें तो यहां पर भी कांग्रेस की जमीन समय के साथ कमजोर होती चली गई है। रायबरेली की तरह ये सीट भी कांग्रेस का मजबूत गढ़ मानी गई है, लेकिन 2019 में जो खेल हुआ था, उसने बता दिया कि गांधी परिवार के एक और घर में बड़ी सेंधमारी हो चुकी है। आंकड़ों में बात करें तो साल 2009 में राहुल गांधी दूसरी बार अमेठी से जीत चुके थे, उनका वोट प्रतिशत तब 71.80 प्रतिशत था और उस समय भाजपा अमेठी में एक छोटी और कमजोर पार्टी थी। उसका वोट प्रतिशत मात्र 5.80% था, लेकिन फिर ठीक 5 साल बाद स्थिति पूरी तरह पलट गई और 2014 में राहुल गांधी के वोट शेयर में जबरदस्त गिरावट देखने को मिली। उनका वोट प्रतिशत 46.70% पर पहुंच गया, वही बीजेपी का बढ़कर 34.40 हो गया। अब वो परिवर्तन सिर्फ छोटे स्तर पर था, इसी वजह से राहुल गांधी ने अपनी सीट बचा ली, लेकिन 5 साल बाद भाजपा ने उस कसर को भी दूर कर दिया।

स्मृति ईरानी ने सबसे बड़ा खेल करते हुए राहुल गांधी को उन्हीं के गढ़ में हरा दिया। 2019 के लोकसभा चुनाव में अमेठी सीट पर बीजेपी का वोट शेयर 49.70% हो गया, वही राहुल गांधी का गिरकर 45.90% पर आ गया। ऐसे में 10 साल के अंदर में अमेठी में कांग्रेस ने 28 प्रतिशत वोट शेयर खो दिया और बीजेपी ने 44% अतिरिक्त हासिल किया।

चुनौती नंबर 3- बीजेपी ने अपनाई कांग्रेस की रणनीति

बात जब भी अमेठी और रायबरेली की आती है, कांग्रेस एक परिवार वाला कनेक्शन ढूंढ कर निकाल देती है। उसका दावा रहता है कि गांधी परिवार ने दोनों क्षेत्रों के लिए काफी काम किया है, विकास के जितने भी बड़े काम हुए हैं, उसमें उनके परिवार की एक अहम भूमिका रही है। लेकिन जब से बीजेपी ने अमेठी में खेल किया है, अब स्मृति ईरानी भी उसी रणनीति पर आगे बढ़ रही हैं। एक तरफ स्मृति खुद को अमेठी की बेटी बताती हैं तो वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस पर अपने ही परिवार को धोखा देने का आरोप भी लगा देती हैं।

असल में राहुल गांधी ने ही 2014 के चुनाव में कहा था कि अमेठी उनका एक परिवार है, उनका उस क्षेत्र के साथ सिर्फ राजनीतिक रिश्ता नहीं है, बल्कि परिवार वाला रिश्ता है। अब इसी वजह से जब 2019 में चुनावी हार के बाद राहुल अमेठी वापस नहीं लौटे तो स्मृति ईरानी ने तंज करते कह दिया था कि राहुल ने तो अपने परिवार को ही धोखा दे दिया, उन्होंने अपना परिवार बदल लिया, यानी कि जिस कनेक्शन के दम पर कांग्रेस कई सालों तक अमेठी और रायबरेली पर राज करती रही, अब बीजेपी भी इस निजी कनेक्शन वाली रणनीति के तहत कांग्रेस को उसी की पिच पर हारने की तैयारी कर रही है।

चुनौती नंबर 4- यूपी में कांग्रेस का कमजोर संगठन

ये सच्चाई है कि समय के साथ उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कमजोर हो चुकी है, दो दशक से भी ज्यादा लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहने वाली कांग्रेस अब यहां पर काफी कमजोर हो चुकी है। आंकड़े इस बात की तस्दीक करते हैं। 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 18.5 फीसदी वोट मिला था और लोकसभा चुनाव में वो 21 सीटें जीतने में कामयाब हो गई। उस बड़ी सफलता के लिए युवा चेहरे राहुल गांधी को सारा क्रेडिट दिया गया। लेकिन 2014 में वो हवा, वो ताकत गायब हो गई और बीजेपी ने सबसे बड़ी सेंधमारी की।

2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर उत्तर प्रदेश में घटकर 7.48 फीसदी रह गया और उसे मात्र दो सीटें मिली- रायबरेली और अमेठी। लेकिन 2019 के चुनाव में वो आंकड़ा सिर्फ एक सीट तक सीमित रह गया क्योंकि अमेठी सीट राहुल गांधी हार गए। अब कम होते वोट प्रतिशत और सीटों की वजह से ही जानकार मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की नींव पहले की तुलना में काफी कमजोर हो चुकी है और उसको बीजेपी से मुकाबला करने के लिए एक बार फिर जमीन स्तर पर मेहनत करनी पड़ेगी। इसी कड़ी में कांग्रेस का एक वर्ग आज भी प्रियंका गांधी को आशा की नजरों से देखता है। वो मानकर चल रहा है कि प्रियंका के जरिए ही यूपी में कांग्रेस को फिर बूस्ट मिल सकता है, इसी वजह से लगातार मांग की जा रही है कि रायबरेली से प्रियंका गांधी को उतारा जाए। वही अमेठी से भी फिर राहुल गांधी की दावेदारी पेश होने की बात हो रही है, लेकिन इस पूरी सियासत का दूसरा एंगल भी है। अगर रायबरेली और अमेठी से राहुल और प्रियंका को ही उतरा जाता है तो बीजेपी काफी आसानी से फिर परिवारवाद मुद्दे को भुनाने की कोशिश करेगी, वो दावा करेगी कि कांग्रेस सिर्फ एक ही परिवार का राज चाहती है और इसी वजह से लगातार एक ही चेहरे को लांच किया जाता है।