भाजपा का संकट यही है कि वह लगातार दूसरी बार भारी अंतर से लोकसभा और लगातार तीन बार नगर निगमों के चुनाव जीतने के बावजूद 21 साल से दिल्ली सरकार से बाहर है। किसी समय में भाजपा और उससे पहले जनसंघ की राजनीति दिल्ली से चलती थी, अब सालों से दिल्ली में दमदार नेता और मजबूत संगठन न हो पाने के कारण भाजपा किसी अन्य कारणों के आधार पर ही चुनाव जीतती रही है। लोकसभा की सातों सीटों पर 2014 के लोकसभा चुनाव के मुकाबले करीब दो गुणे अंतर से भाजपा चुनाव जीती। भाजपा को 57 फीसद वोट मिले हैं।

यह बार-बार साबित हो रहा है कि दिल्ली के लोकसभा चुनाव का विधानसभा चुनाव से ज्यादा मतलब नहीं है। दिल्ली में लोकसभा चुनाव में भाजपा से पहले 2009 में कांग्रेस को भी 57 फीसद वोट के साथ सातों सीटें मिली थीं लेकिन वे उसके बाद के न तो कोई निगम चुनाव जीत पाए और न ही विधानसभा चुनाव। इतना ही नहीं नगर निगमों के चुनाव भी गैर भाजपा मतों के कई खेमों में विभाजन होने से भाजपा चुनाव जीतती रही है लेकिन ‘आप’ के ताकतवर होने के बाद कांग्रेस के साथ जुड़े पूर्वांचल के प्रवासी ‘आप’ के साथ पूरी संख्या में जुट गए।

मनोज तिवारी को 2016 में सतीश उपाध्याय को हटाकर प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया तो उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती 2017 के नगर निगम चुनाव जीतने की थी। वे इसमें सफल रहे। उन्होंने बिहार मूल के 32 उम्मीदवारों को टिकट दिलवाया जिसमें 20 चुनाव जीत गए। 36 फीसद वोट लाकर भाजपा तीसरी बार निगमों की सत्ता में काबिज हुई। अस्सी के दशक से दिल्ली के राजनीतिक समीकरण में बदलाव की शुरुआत तेजी से हुई और उसके तीन दशक बाद को दिल्ली की 70 विधानसभा सीटों में से 50 में पूर्वींचल के प्रवासी 20 से 60 फीसद तक हो गए।

पहले तो यह कहा जाता था कि प्रवासी तो दिल्ली में रहते हैं लेकिन वे मतदाता अपने मूल राज्य के हैं। पहली बार 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने बिहार मूल के महाबल मिश्र को पश्चिमी दिल्ली से लोकसभा उम्मीदवार बनाया तो लोगों ने उनकी हार सुनिश्चित मान ली, लेकिन महाबल की मेहनत, पूर्वांचल के लोगों का साथ और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का सिख मतों पर असर आदि से उनकी जीत हो गई। उसके बाद तो राजनीति में बदलाव आया और ‘आप’ ने अपनी राजनीति का केंद्र प्रवासियों और गरीबों को बनाया।