दिल्ली की लोकसभा सीटों पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) में गठबंधन न होने का लाभ निश्चित रूप से भाजपा को मिलेगा, लेकिन इस बेमेल गठबंधन के लंबे प्रयास ने ‘आप’ की फजीहत और कांग्रेस में गुटबाजी को हवा दे दी। अभी तो सारी तैयारी लोकसभा चुनाव के लिए थी लेकिन तीनों दलों का निशाना अगले साल होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव पर है। गठबंधन होने पर भाजपा के नेता यह मुद्दा बनाते कि ‘आप’ कांग्रेस की ‘बी’ टीम है। ‘आप’ सरकार की सारी नाकामी को कांग्रेस के सिर फोड़ने की कोशिश करते। अब कहा जाएगा कि दोनों दलों में अपने बूते भाजपा से मुकाबला करने का दम नहीं है। एक दो सीटों पर अपवाद को छोड़ दें तो पहली नजर में यही लग रहा है कि तीनों दलों के चुनाव लड़ने पर भाजपा की राह आसान कर दी है। वैसे वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ हर्षवर्धन और विजय गोयल तो यही दुहराते हैं कि किसी भी हाल में भाजपा सभी सीटें जीत लेगी। संयोग से करीब साल भर चले ‘आप’ और कांग्रेस में सीटों के गठबंधन के असफल प्रयास ने भाजपा नेताओं की उम्मीद बढ़ा दी है।

दिल्ली में प्रचंड बहुमत से सरकार में बैठी ‘आप’ के नेताओं को लगने लगा था कि अगर कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ें तो 2014 के चुनाव में दोनों दलों को मिले वोट इकट्ठा होकर भाजपा को पराजित कर सकते हैं। 2017 के निगमों के चुनाव में अगर कांग्रेस में बड़ी बगावत न होती तो संभव है ‘आप’ और कांग्रेस के बीच चार फीसद मतों का अंतर भी न रहता। इसीलिए कांग्रेस के ज्यादातर स्थानीय नेताओं का मानना था कि जिस ‘आप’ ने कांग्रेस के वोट लेकर उसे हाशिए पर ला दिया उसके साथ चुनाव लड़ने का कोई मतलब नहीं है। खुद केजरीवाल अपने भाषणों में कहते हैं कि कांग्रेस भाजपा से मिली हुई है। बावजूद इसके कांग्रेस के बड़े नेताओं का एक वर्ग समझौते के लिए बेकरार दिखा तो केजरीवाल ने अपने तेवर बदल दिए। उन्होंने दिल्ली समेत पंजाब, हरियाणा और गोवा में भी समझौता करके चुनाव लड़ने की शर्त रख दी। पंजाब में तीन हिस्सों में बंटने के बाद ‘आप’ बेजान हो चुकी है। पंजाब के मुख्यमंत्री आसानी से ‘आप’ के लिए सीट छोड़ने को तैयार नहीं थे। एक समय तो दिल्ली कांग्रेस की अध्यक्ष शीला दीक्षित के विरोध के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने दिल्ली में 4-3 पर समझौता करने पर हरी झंडी दे दी। तब कहा गया कि ‘आप’ दिल्ली में कांग्रेस के लिए उतनी ही सीटें छोड़ेगी जितनी उसे हरियाणा में कांग्रेस देगी। कांग्रेस इसके लिए तैयार नहीं हुई।

दिल्ली में कांग्रेस सभी सातों सीटों पर उम्मीदवार घोषित करने वाली है। 2015 के विधानसभा चुनाव में ‘आप’ को 54 फीसद से ज्यादा वोट मिले थे। अगर उसे अपने काम पर विश्वास है तो उसे कांग्रेस की बैसाखी क्यों चाहिए? दिल्ली कांग्रेस अध्यक्ष शीला दीक्षित बार-बार यही सवाल उठाती हैं। वे कहती हैं कि जब वे चुनाव प्रचार की शुरुआत हमारी आलोचना से ही करने वाले हैं तो हमारा साथ उन्हें क्यों चाहिए? हरियाणा में ‘आप’ का कोई वजूद नहीं है जजपा (जननायक जनता पार्टी) भी चुनाव को भाजपा बनाम खुद का बताती नहीं दिख रही है। ऐसे में ‘आप’ को सबसे ज्यादा उम्मीद दिल्ली से है। वास्तव में कांग्रेस से अगर ‘आप’ की बातचीत तैयारी के साथ होती तो काफी पहले उसके उम्मीदवार भी चुनाव मैदान में आ जाते। महीनों आरोप-प्रत्यारोप के बाद तो ‘आप’ के पास अब कांग्रेस पर गठबंधन न करने या भाजपा को मदद करने जैसे पुराने आरोप दुहराने को अलावा कुछ नहीं बचता है।

अगर कांग्रेस अपने बूते चुनाव लड़ने का फैसला शुरू से करती तो हर सीट पर उम्मीदवार तय करने के लिए गंभीर चयन प्रक्रिया चलती और ‘आप’ जैसे कांग्रेस उम्मीदवार पहले से ही चुनाव प्रचार करते। कई दमदार उम्मीदवारों ने यह खुलेआम कह दिया कि वे समझौते के बाद ही चुनाव लड़ेंगे। गठबंधन के मुद्दे ने फिर से गुटबाजी को हवा दे दी। कहा जाने लगा कि शीला दीक्षित के पुत्र(पूर्व सांसद संदीप दीक्षित) चुनाव नहीं लड़ना चाहते इसलिए वे गठबंधन का विरोध कर रही हैं। अपने बूते चुनाव लड़ने के पार्टी नेतृत्त्व के फैसले के बाद शीला दीक्षित को पूर्वी दिल्ली सीट से उम्मीदवार बनवाने के लिए कुछ लोग सक्रिय हो गए हैं, जिससे वे परेशान हों। खुद दीक्षित ने कहा कि वे लोकसभा के बजाए अगले साल होने वाले विधान सभा चुनाव लड़ना चाहती हैं। पार्टी में अनेक नेता ऐसे हैं जो इस सीट पर बेहतर चुनाव लड़ सकते हैं। दिल्ली में 12 मई को होने वाले मतदान की अधिसूचना 16 अप्रैल को जारी होनी है। कांग्रेस और ‘आप’ में गठबंधन न होने पर अब आने वाले एक-दो दिनों में कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा के उम्मीदवार भी घोषित होंगे।