विधानसभा चुनावों के गर्म होते माहौल में पार्टी अध्‍यक्ष के नाम पर राजनीति तेज़ हो गई है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विरोधी कांग्रेस पर निशाना साधते हुए पहले कहा कि उसे परिवार से बाहर के किसी व्‍यक्‍ति को अध्‍यक्ष बनाने की हिम्‍मत ही नहीं है। इस पर पी. चिदंबरम ने उन कांग्रेस अध्‍यक्षों के नाम गिनाए जिनके ताल्‍लकु गांधी परिवार से नहीं रहे। इसके बाद एक चुनावी सभा में पीएम ने दलित अध्‍यक्ष के नाम पर कांग्रेस पर निशाना साधा। पीएम नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष सीताराम केसरी को दलित बताते हुए (जबकि, वह दलित नहीं बल्कि बिहार के ओबीसी समुदाय से जुड़े बनिया थे) कांग्रेस पर हमला बोला। उन्होंने कहा कि सोनिया गांधी को अध्‍यक्ष बनाने के लिए सीताराम केसरी को बेइज्जत किया गया और बतौर कांग्रेस अध्यक्ष उनका कार्यकाल पूरा नहीं होने दिया गया। ऐसे में जानते हैं कि बीजेपी के अध्‍यक्ष बंगारू लक्ष्‍मण (जो वास्‍तव में दलित थे) के साथ पार्टी ने क्‍या किया था और वह कैसे किनारे लग कर गुमनामी में मरने के लिए मजबूर हुए।

साल 2000 में पहली बार बीजेपी ने किसी दलित को अध्‍यक्ष बनाया था। यह गौरव बंगारू लक्ष्मण को मिला था। वह पार्टी में काफी ऊंचाई चढ़ते हुए इस ओहदे तक पहुंचे थे। लेकिन, एक साल बाद ही उनके साथ वह घटा, जिसके बाद वह कभी ऊपर नहीं उठ सके। साल 2001 बंगारू के लिए बेहद ही खराब साल रहा। यहीं से उनका राजनीतिक कद रसातल में चला गया। बंगारू लक्ष्मण का जिक्र ऐसे वक्त में तब और जीवंत हो उठता है जब राजनीतिक दलों में दलित फैक्टर को साधने की होड़ लगी है। पीएम की ओर से दलित अध्यक्ष को लेकर कटाक्ष किए जा रहे हैं। हालांकि, इन टिप्पणियों से बीजेपी का खेमा पीएम मोदी को बंगारू लक्ष्मण की याद दिला रहा है। विरोधी आरोप लगा रहे हैं कि दलितों की चिंता करने वाली बीजेपी को अपने पहले दलित अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण के साथ किए गए सलूक को याद करना चाहिए।

झटके में ऐसे गिर गया था बंगारू का कद: दरअसल, 2001 में तहलका स्टिंग ऑपरेशन में एक लाख रुपये का घूस लेते बंगारू लक्ष्मण की सनसनीखेज तस्वीर सामने आयी। इसके बाद लक्ष्मण से पार्टी ने पूरी तरह दूरी बना ली। पार्टी के अध्यक्ष पद से बंगारू लक्ष्मण को इस्तीफा देना पड़ा। इस घटना के बाद से लक्ष्णण को बीजेपी ने पूरी तरह से साइडलाइन कर दिया। तत्कालीन राजनीति में बीजेपी अपनी छवि भ्रष्टाचार के खिलाफ तैयार करने में जुटी थी। ऐसे में बंगारू लक्ष्मण को पार्टी के नेताओं ने उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया। उन्हें अकेले ही भ्रष्टाचार के आरोपों को झेलना पड़ा। 2012 में सीबीआई की विशेष अदालत ने लक्ष्मण को मामले में चार साल की सजा सुनाई। 27 अप्रैल, 2012 को उन्हें गिरफ्तार किया गया और अक्टूबर में उन्हें जमानत दे दी गयी। आंशिक रूप से लकवे का शिकार हो चुके लक्ष्मण वर्षों व्हीलचेयर पर रहे और मार्च 2014 में 74 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कह गए। उनकी मौत से कुुछ महीने पहले ‘संडे एक्‍सप्रेेस’ ने उनसे बात की थी तो उन्‍होंने अपनी स्‍थति के लिए बीजेपी को जिम्‍मेदार बताया था। उन्‍होंने माना था कि पार्टी ने उन्‍हें हाशिये पर ढकेल दिया था।

इस तरह ऊंचाई पर चढ़े थे बंगारू: 1939 में एक दलित परिवार में जन्में बंगारू लक्ष्मण शुरू से ही संघ से जुड़े रहे। 1953 में पहली बार उन्होंने आरएसएस जॉइन किया। राजनीति में आने से पहले उन्होंने कई सेक्टरों में काम भी किया। जिनमें, स्टेट इलेक्ट्रिसिटी डिमार्टमेंट (1958), रेलवे (1962), एकाउंटेंट जनरल ऑफिस (1965) जैसे सरकारी महकमें शामिल हैं। पहली बार 1969 में जनसंघ के जरिए उन्होंने सक्रिय राजनीति में कदम रखा। राजनीति में आते ही उन्होंने इंदिरा गांधी की सरकार के खिलाफ प्रदर्शन शुरू किए। आपातकाल के दौरान मीसा के तहत 16 महीनों तक जेल में भी बंद रहे। जब बीजेपी का गठन हुआ तब उन्हें 1980 में आंध्र प्रदेश इकाई का संयोजक बनाया गया। 1980-85 के बीच में वह पार्टी के जनरल सेक्रेटरी रहे। सात सालों तक वह बीजेपी के अनुसूचित जाति मोर्चा के प्रमुख भी रहे। 1996 में पार्टी ने उन्हें गुजरात से राज्यसभा सदस्य बनाया और 1999 में बंगारू लक्ष्मण वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रहे और साल 2000 में उन्हें बीजेपी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया। बाकी इसके आगे की दास्तान से सभी वाकिफ हैं।

जूदेव के साथ जुदा सलूक: भ्रष्‍टाचार के कारण बंगारू लक्ष्‍मण से दूरी बना कर पार्टी ने कई लोगों की नजर में अच्‍छा काम किया था। लेकिन दो साल बाद ही भ्रष्‍टाचार के ही एक मामले में पार्टी के रुख से इन लोगों को भी आलोचना का मौका मिला। 2003 में वाजपेयी सरकार में मंत्री दिलीप सिंह जूदेव (जो ऊंची जाति के थे) का एक स्टिंग सामने आया था। इसमें जूदेव 9 लाख रुपये कैश लेते दिखाई दिए।कैमरे पर दिलीप सिंह जूदेव को ‘फिल्मी डायलॉग’ बोलते भी सुना गया। वह कह रहे थे, “पैसा खुदा तो नहीं, लेकिन खुदा की कसम खुदा से कम भी नहीं।” यहां जूदेव को पार्टी ने बंगारू लक्ष्मण की तरह साइडलाइन नहीं किया। बल्कि, दोबारा पार्टी ने उन पर विश्वास जताया और वह संसद में चुनकर आए।