बिहार के सियासी खेला ने पूरे देश की राजनीति को बदलकर रख दिया है। इस समय लोकसभा चुनाव करीब है, ऐसे में जो भी घटनाक्रम होगा, उसका सीधा असर सबसे बड़े सियासी फाइनल पर पड़ना लाजिमी है। नीतीश ने तो सिर्फ पाला बदला है, लेकिन बीजेपी ने एक बड़ा दांव खेल दिया है। ये दांव उसे अब इंडिया गठबंधन से आगे दिखा रहा है। ये निष्कर्ष किसी आंकड़े से नहीं बल्कि जनता के बीच बन रहे माहौल से समझा जा सकता है।

बात अगर सिर्फ पिछले 60 दिनों की जाए, इस देश में कई बड़ी घटनाएं हो चुकी हैं। शुरुआत विधानसभा चुनावों से हुई थी जहां पर हिंदी पट्टी राज्यों में बीजेपी ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया। एमपी में प्रचंड बहुमत, राजस्थान में रिवाज दोहराया और छत्तीसगढ़ में पांच साल बाद फिर वापसी की। उस चुनावी जीत ने ही बीजेपी के पक्ष में मोमेंटम बना दिया था। हर कोई जिस चुनाव को सेमीफाइनल के तौर पर देख रहा था, उसकी क्लियर विनर बीजेपी निकली।

अब जीत का माहौल तो मोदी ब्रिगेड को मदद दे रहा था, साल की शुरुआत से ही अयोध्या में राम मंदिर को लेकर नेरेटिव सेट होना शुरू हुआ। ये तथ्य है कि अयोध्या में जो राम मंदिर बना है, उसका कारण सुप्रीम कोर्ट का आदेश है। कई दशकों का संघर्ष भी रहा है, कई लोगों ने कुर्बानियां भी दी हैं। लेकिन जिस चालाकी के साथ मार्केटिंग हुई, जिस तरह से बीजेपी ने प्रचार किया, एक बड़े वर्ग में साफ संदेश गया- मोदी है तो मुमकिन है। यानी कि राम मंदिर का क्रेडिट पीएम मोदी के खाते में गया। इसके ऊपर प्राण प्रतिष्ठा वाले दिन जिस तरह हर कोई भाव विभोर हो गया, उसने भी जमीन पर एक तगड़ा माहौल सेट किया।

बीजेपी हिंदुत्व की पिच पर कई सालों से खेल रही है, 1989 से तो मंदिर मुद्दा भी उसके हर घोषणा पत्र का हिस्सा रहा है। ऐसे में बीजेपी की ताकत मंदिर बनना नहीं है, बल्कि ये उसकी उस विचारधारा की जीत है जिस पर वो तमाम आलोचनाओं के बाद भी टिकी रही। उसे कभी हिंदू पार्टी कहा गया, कभी सिर्फ हिंदी पट्टी बताया गया, कभी सवर्ण जातियों की पार्टी कहा गया, लेकिन बीजेपी ने अपना स्टैंड कभी नहीं बदला। ऐसे में जनता के बीच में आराम से पार्टी अब इस मुद्दे को अपनी जीत के तौर पर भुना सकती है।

सीएसडीएस के ही आंकड़े के मुताबिक 2009 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को मंदिर जाने वाले हिंदुओं का सिर्फ 28 फीसदी वोट मिला था। ये वो वक्त था जब नरेंद्र मोदी सिर्फ गुजरात की राजनीति तक सीमित चल रहे थे, बीजेपी के असल चेहरा लाल कृष्ण आडवाणी थे। लेकिन 2014 के बाद स्थिति बदलनी शुरू हुई, मंदिर जाने वाले हिंदुओं के बीच में बीजेपी का रुझान तेजी से बढ़ा। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब मोदी लहर तमाम फैक्टर्स पर हावी चल रही थी, तब बीजेपी को मंदिर जाने वाले हिंदुओं का 45 फीसदी वोट मिला, यानी कि 2009 की तुलना 17 प्रतिशत ज्यादा।

सरकार बनाने के बाद से पीएम मोदी का मंदिर निर्माण पर खास फोकस रहा है, इसका फायदा भी बीजेपी को 2019 के लोकसभा चुनाव में होता दिखा। पिछले चुनाव में पार्टी ने पहली बार 50 फीसदी से ज्यादा मंदिर जाने वाले हिंदुओं का वोट हासिल किया। ये ट्रेंड साफ बताता है कि देश का मिजाज बदल रहा है, धर्म की राजनीति से अगर बचने वाले लोग मौजूद हैं, तो इसे शिद्दत से मानने वालों की भी कमी नहीं है। बीजेपी ने इसी जनता की नब्ज को पकड़ लिया, इसी वजह से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पर लगातार जोर दिया जा रहा है।

अब मंदिर पॉलिटिक्स तो बीजेपी के लिए काम कर ही रहा है, इस समय इंडिया गठबंधन में जिस तरह से फूट पड़ रही है, वो भी स्थिति को पार्टी के पक्ष में कर रहा है। लोकतंत्र में सत्ता दल को चुनाव के वक्त सबसे ज्यादा डर विपक्ष से ही लगता है। चुनौती भी वहीं से मिलती है, लेकिन पिछले 60 दिनों में वही विपक्ष बिखर सा गया है। चुनाव के लिहाज से जो सबसे निर्णायक राज्य हैं, वहां पर अभी तक सीट शेयरिंग पर ही कुछ फाइनल नहीं हो पाया है। बंगाल में ममता ने अकेले लड़ने का ऐलान कर दिया है, पंजाब में आम आदमी पार्टी अपने दम पर लड़ने जा रही है, यूपी में अखिलेश 11 से ज्यादा सीटें देने को तैयार नहीं।

इसके ऊपर बिहार में नीतीश के खेल ने सारे समीकरण बदल दिए हैं। अगर आंकड़ों में बात करें तो इन सभी राज्यों से लोकसभा की कुल 173 सीटें निकलती हैं। इन सीटों पर ही विपक्ष के एकजुटता वाले दांव फेल हो गए हैं, ऐसे में बीजेपी की राह अभी के लिए कुछ आसान दिखाई देती है। इस आसान राह में इस बार बीजेपी पिछड़ों का भी साथ अपने पाले में करने की कवायद की है।

उदाहरण के लिए पार्टी इस साल अप्रैल में ‘गांव-गांव चलो, घर-घर चलो’ अभियान शुरू किया था। इसके तहत बीजेपी ओबीसी मोर्चा एक लाख गांव तक पहुंची थी और पार्टी की योजनाओं के बारे में उन्हें जानकारी दी गई। इसी तरह इस साल प्रधानमंत्री विश्वकर्मा योजना भी शुरू कर दी गई। इसके तहत लोहार, बरही, कहार, नाई, धोबी जैसे लोगों को कम ब्याज पर कर्ज मिलने का रास्ता साफ हो गया। अब योजनाओं के जरिए अगर ओबीसी के पास पहुंचा गया है तो हाल ही में एमपी और छत्तीसगढ़ में नए सीएम के नामों के साथ भी उसी समीकरण को साधा गया। एमपी में पार्टी ने मोहन यादव को मुख्यमंत्री बनाया, ओबीसी का बड़ा चेहरा हैं और हिंदुत्व की राजनीति भी लंबे समय से करते आ रहे हैं, यानी कि मंडल भी और कमंडल भी।

अब इसी वजह से जानकार मान रहे हैं कि 60 दिनों के अंदर में देश की चुनावी फिजा बदल गई है जहां पर इंडिया गठबंधन में फूट है, हिंदुत्व की लहर है और पिछड़ों पर चले जा रहे सबसे बड़े सियासीं दांव हैं।