प्रेमलता मिश्रा

बीते तीन सालों में और खासतौर पर महामारी के संकट के दौरान स्कूली शिक्षा को लेकर भारत में एक नई बहस खड़ी हुई कि क्या डिजिटल मंच की कक्षाएं वास्तविक कक्षाओं का विकल्प हो सकती हैं। उस त्रासदी के बाद कई कोचिंग और स्कूल अभी भी इस तकनीक से शिक्षा देने का काम कर रहे हैं।

दूरस्थ अंचलों तक पाठशाला भवन बनवाने, वहां शिक्षकों की नियमित हाजिरी सुनिश्चित करने, स्कूल भवनों में मूलभूत सुविधाओं की व्यवस्था करने, हमारे देश के विषम मौसमी हालात में स्कूल संचालित करने जैसी कई चुनौतियों को जोड़ लें तो एक बच्चे तक शिक्षा पहुंचाने और उसकी मनमर्जी की जगह पर बैठ कर सीखने की प्रक्रिया पूरी करने का कार्य न केवल प्रभावी लगता है, बल्कि आर्थिक रूप से भी कम खर्चीला है।

जब भारत के समााजिक-आर्थिक समीकरण बदल रहे हैं, जाति-समाज-लिंग की दीवारें छोटी हो रही हैं, जब शिक्षा बदलाव, रोजगार का साधन बन रही है, तब भारत की शिक्षा नीति महज आंकड़ों, दावों और नारों में उलझी है। शिक्षा या स्कूल एक पाठ्यक्रम को पूरा करने की जल्दी, कक्षा में श्यामपट्ट, प्रश्नों को हल करने की जुगत में उलझ कर रह गया।

दूसरी तरफ बच्चे के लिए शिक्षा एकालाप की तरह है। एक तरफ से सवाल दूसरी तरफ से जवाब और उसी से तय हो जाता है कि बच्चा कितना योग्य है। सवाल है कि किस बात के लिए योग्य? समाज में जीने के, प्रकृति को पहचानने के, रोजगार के या ऐसे ही किसी जमीनी धरातल के? दरअसल, महज एक ऐसा कागज का टुकड़ा पाने के योग्य हो जाता है, जिससे उसका स्कूल का कमरा तो बदल जाता है, लेकिन जीवन की असलियत से सामना करने की क्षमता नहीं बढ़ती।

जिस देश में मोबाइल संपर्कों की संख्या देश की कुल आबादी के लगभग करीब पहुंच रही हो, जहां किशोर ही नहीं, बारह साल के बच्चे के लिए मोबाइल स्कूली-बस्ते की तरह अनिवार्य बनता जा रहा है, वहां बच्चों को डिजिटल साक्षरता, जिज्ञासा, सृजनशीलता, पहल और सामाजिक कौशलों की जरूरत है। हालांकि यह भी सच है कि स्कूल में बच्चों को मोबाइल का इस्तेमाल शिक्षा के राते में बाधक माना जाता है।

परिवार भी बच्चों को अनचाहे तरीके से कड़ी निगरानी (जहां तक संभव हो) के बीच मोबाइल थमाते हैं। वास्तविकता यह है कि सस्ते डेटा के साथ हाथों में बढ़ रहे मोबाइल का सही तरीके से इस्तेमाल खुद को शिक्षक कहने वालों के लिए एक खतरा सरीखा है। हमारे यहां बच्चों को मोबाइल के सटीक इस्तेमाल का कोई पाठ किताबों में नहीं है।

भारत में शिक्षा का अधिकार और कई अन्य कानूनों के जरिए बच्चों के स्कूल में पंजीयन का आंकड़ा और साक्षरता दर में वृद्धि निश्चित ही उत्साहवर्धक है, लेकिन जब गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बात आती है तो यह आंकड़ा हमें शर्माने को मजबूर करता है कि हमारे यहां आज भी करीब दस लाख शिक्षकों की कमी है। जो शिक्षक हैं भी, वे महज उनको दिए गए पाठ्यक्रम को पढ़ाने को ही अपनी ड्यूटी समझते हैं।

कुछ इक्का-दुक्का नवाचार की बात करते हैं तो उन्हें व्यवस्था का सहयोग मिलता नहीं है। आज स्कूली बच्चे को मध्याह्न भोजन लेना हो या फिर वजीफा, हर जगह डिजिटल साक्षरता की जरूरत महसूस हो रही है। हम पुस्तकों में पढ़ाते हैं कि गाय रंभाती है या शेर दहाड़ता है। कोई भी शिक्षक यह सब अब मोबाइल पर सहजता से बच्चों को दिखा कर अपने पाठ को कम शब्दों में सहजता से समझा सकता है। मोबाइल पर ‘सर्च इंजन’ का इस्तेमाल, वेबसाइट पर उपलब्ध सामग्री में यह पहचानना कि कौन-सी पुष्ट-तथ्य वाली नहीं है, अपने पाठ में पढ़ाए जा रहे स्थान, ध्वनि, रंग, आकृति को तलाशना और बूझना प्राथमिक शिक्षा में शामिल होना चाहिए।

किसी दृश्य को चित्र या वीडियो के रूप में सुरक्षित रखना एक कला के साथ-साथ सतर्कता का भी पाठ है। ‘मैने रास्ते में कठफोड़वा देखा’। यह जंगल महकमे के लिए सूचना हो सकती है कि हमारे यहां यह पक्षी भी आ गया है। साथ ही आवाज को रिकार्ड करना भी महत्त्वपूर्ण कार्य है। दुखद है कि जब डिजिटल यंत्र हमारे लेन-देन, व्यापार, परिवहन, यहां तक कि अपनी पहचान के लिए अनिवार्य होते जा रहे हैं, हम बच्चों को घिसे-पिटे विषयों पर न केवल पढ़ा रहे हैं, बल्कि रटवा रहे हैं।

हमारे शिक्षक आज भी पुराने पाठ्यक्रमों को उत्तीर्ण कर आ रहे है जहां पुराने तौर-तरीकों के जरिए बच्चों को विषय समझाने की प्रक्रिया से गुणवत्ता का निर्धारण होता है। एक मोटा अनुमान है कि अभी ऐसे कोई साढ़े छह लाख शिक्षक चाहिए जो सूचना-विस्फोट के युग में तेजी से किशोर हो रहे बच्चों में शिक्षा की उदासी और उबासी दूर कर नए तरीके से नई दुनिया की समझ विकसित करने में सहायक हों।

बच्चे का अपना विस्तारित अनुभव जगत, बच्चे का ज्ञान, बच्चे के अपने अनुभव- उन सबका यहां न तो कोई अर्थ है. न ही कद्र। ऐसे में डिजिटल साक्षरता के उद्देश्य से किए गए कुछ प्रयोग बच्चों को हर दिन कुछ नया करने के उत्साह में स्कूल की ओर खींच लाएंगे।