यह साल नरेंद्र मोदी की अग्निपरीक्षा का होगा। इसलिए कि अब वह वक्त निकल चुका है, जब गांधी परिवार के पांच दशक लंबे राज को भारत की समस्याओं की जड़ बताया जा सकता था। अब अगर भारत की गाड़ी रुक-रुक के आगे बढ़ रही है, अब अगर परिवर्तन और विकास का अभाव दिखता है, तो दोष प्रधानमंत्री के सिर पर टिकेगा। माना कि संसद को देश की पूर्व राजमाता और युवराज ने चलने नहीं दिया पिछले वर्ष, लेकिन संसद के बाहर जो परिवर्तन आना चाहिए था, उसके आसार अभी तक दिख नहीं रहे हैं। मैं नरेंद्र मोदी की समर्थक हूं अब भी, क्योंकि मैं मानती हूं कि उनके आने से लोकतांत्रिक सामंतवाद कुछ हद तक कम हुआ है। उनके बारे में यह कम से कम नहीं कहा जा सकता कि वे देश की सेवा से ज्यादा अहमियत देते हैं अपने परिवार की सेवा को।
यह बहुत बड़ी चीज मानती हूं मैं, क्योंकि मुझे विश्वास है कि लोकतंत्र के भेष में अगर वंशवाद न होता दशकों से, तो भारत की गिनती आज विकसित देशों में होती। संपन्नता असंभव होती है किसी भी देश में जब तक उस देश के आम आदमी की बुनियादी जरूरतें पूरी नहीं होती हैं- रोटी, रोजगार, कपड़ा, मकान। इन बुनियादी जरूरतों को उस किस्म के राजनेता कभी पूरा नहीं करते, जिनका राजनीति में आने का मकसद होता है अपनी सेवा, अपने बच्चों की सेवा। मतदाता जब गरीब और अशिक्षित रहते हैं तो उनको जाति-धर्म के नाम पर आसानी से बहकाया जा सकता है। इसका उदाहरण हाल में हमने बिहार विधानसभा चुनावों में देखा, जब लालू प्रसाद को उस राज्य के मतदाताओं ने तकरीबन राजा बना दिया। नतीजा यह कि उनके दोनों बेटे मंत्रिमंडल में शामिल हैं और अब उनकी तैयारी है अपनी बीवी और बेटी को राज्यसभा में भेजने की, क्योंकि लटयंस दिल्ली में आलीशान बंगले के बिना राजनेता होने का मजा कहां!
सो, नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी में वंशवाद कम करने की कोशिश करके बहुत अच्छा किया है, लेकिन अभी और बहुत कुछ है करने को। असली परिवर्तन तब आएगा भारत में, जब प्रधानमंत्री प्रशासनिक सुधार लाने का खुद प्रयास करेंगे। फिलहाल ऐसा लगता है कि इस महत्त्वपूर्ण काम को उन्होंने भारत सरकार के आला अधिकारियों के हाथों में दे दिया है, जो कभी परिवर्तन नहीं आने देंगे, क्योंकि प्रशासनिक सुधारों का मतलब है उनकी शक्ति को कम करना।
राजनीतिक गलियारों में खूब चर्चा है इन दिनों कि प्रधानमंत्री अपने मंत्रियों से ज्यादा आला अधिकारियों पर भरोसा करते हैं। यह अगर सच है तो मोदी बहुत बड़ी गलती कर रहे हैं। असली सुधार अगर लाना चाहते हैं तो उनको नीति आयोग द्वारा व्यापक प्रशासनिक सुधारों का नक्शा बनवाना चाहिए, हर मंत्रालय से विचार-विमर्श करके। नीति आयोग द्वारा यह भी मालूम हो सकता है कि कौन-से मंत्रालय और महकमे अब बेकार हो चुके हैं। उदाहरण है सूचना-प्रसारण मंत्रालय, जो बहुत पहले बंद हो जाना चाहिए था।
इसमें कोई शक नहीं कि मोदी को ऐसा देश विरासत में मिला, जहां आम नागरिक की समस्याएं इतनी गंभीर थीं कि इज्जत-सम्मान का जीवन बिताना अधिकतर भारतवासियों के लिए एक सपना आज भी है। भारत के अशिक्षित लोग भी समझ गए हैं अब शिक्षा की अहमियत, सो उनकी पूरी कोशिश रहती है अपने बच्चों को अच्छे स्कूल में भेजने की। इस उद्देश्य को हासिल करने के लिए कई ऐसे लोग हैं, जो पुश्तैनी जमीन-जायदाद बेच कर प्राइवट स्कूलों में भेजते हैं अपने बच्चों को। लेकिन यह भी सच है कि कई गरीब परिवार मजबूर हैं अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में भेजने के लिए। इन स्कूलों में इतनी रद्दी शिक्षा दी जाती है अक्सर कि अगर बच्चा अपना नाम लिखना और सौ तक गिनती भी सीख जाए तो गनीमत है। माना कि प्राथमिक शिक्षा राज्य सरकारों की जिम्मेवारी है, लेकिन प्रधानमंत्री नई दिशा दिखा सकते हैं, जैसे उन्होंने स्वच्छ भारत योजना शुरू करके दिखाई है।
स्वच्छ भारत अभियान पूरी तरह सफल हुआ न हो, लेकिन इतना तो हुआ है कि भारत के शहरों, देहातों में आज आम लोगों के दिमाग में यह बात बैठ गई है कि सफाई कितनी जरूरी है। इस अभियान की वजह से स्वछता की अहमियत लोगों को मालूम हो गई है, लेकिन अब समय आ गया है ठोस कदम उठाने का। शौचालय बने हैं अगर तो उनका उपयोग भी होना चाहिए और उनकी सफाई भी। ऐसा नहीं हुआ है अभी तक। न ही सरकार की तरफ से आधुनिक तरीकों से कूड़ा हटाने की खास कोशिश हुई है। अब भी हाल यह है कि हमारे शहरों और महानगरों के हर नुक्कड़ पर दिखते हैं सड़ते कूड़े के ढेर। अब भी हमारे गावों का हाल यह है कि अधिकतर लोग शौच खेतों में करते हैं। भारत की इस समस्या से निपटना आसान नहीं है, लेकिन अगर इस आदत को छोड़ते नहीं हैं अपने देश्वासी, तो बीमारियों को रोकना असंभव है।
कहने का मतलब यह है कि मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कई नेक इरादे व्यक्त किए, कई अच्छी योजनाएं शुरू कीं, लेकिन इस साल उनको खुद इनका जायजा लेना होगा। इससे भी ज्यादा जरूरी है कि वे मालूम करने की कोशिश करें कि बेरोजगारी कितनी कम हुई है उनकी सरकार बनने के बाद। कहने को तो आसान कर दिया है नौजवानों के लिए बैंकों से लोन लेना, लेकिन हकीकत यह है कि जब कोई नौजवान जाता है बैंक से लोन लेने किसी नए कारोबार के लिए तो लोन मिलना मुश्किल है। न ही भारतीय उद्योग जगत से मंदी के बादल हटे हैं। सो, बहुत कुछ है करने को प्रधानमंत्रीजी अभी। बहुत कुछ, जो इस वर्ष करना होगा।