कहने को हमारे देश में रेलवे सार्वजनिक परिवहन की सबसे बड़ी सेवा है। पर आकार को छोड़, परिचालन और सुरक्षा आदि पहलुओं से देखें, तो इसकी हालत चिंताजनक ही नजर आती है। भारतीय रेलवे का सबसे शोचनीय पहलू मुसाफिरों को सुरक्षित सफर का भरोसा न दिला पाना है। उसकी यह कड़वी हकीकत एक बार फिर उजागर हुई है। एक ही दिन तीन दुर्घटनाएं हुर्इं। शुक्रवार को तड़के गोवा से पटना जा रही वास्को डि-गामा एक्सप्रेस उत्तर प्रदेश के चित्रकूट जिले में मानिकपुर रेलवे स्टेशन के नजदीक पटरी से उतर गई। इस हादसे ने तीन मुसाफिरों की जान ले ली। घायलों में कइयों की हालत गंभीर है। संभव है अन्य रेल हादसों की तरह इसकी भी जांच हो, और कुछ निष्कर्ष व सिफारिशें तब सौंपी जाएं जब इस हादसे को लोग भूल चुके होंगे। लेकिन एक अधिकारी के मुताबिक पहली नजर में यह हादसा रेल पटरी की टूट-फूट से हुआ लगता है। जाहिर है, यह तथ्य रेलवे की दुर्दशा और बदइंतजामी की ओर इशारा करता है। इसी दिन तड़के ओड़िशा में बनबिहारी ग्वालिपुर स्टेशन के नजदीक पारादीप-कटक मालगाड़ी के चौदह डिब्बे पटरी से उतर गए। इसके पीछे भी पटरी की खराबी को ही कारण माना जा रहा है।
वास्को डि-गामा एक्सप्रेस के पटरी से उतरने से बारह घंटे पहले, लखनऊ के नजदीक एक वाहन पैसेंजर ट्रेन से टकरा गया, जिसके चलते चार लोग मारे गए और दो घायल हो गए। इसे भी रेल दुर्घटना की ही श्रेणी में रखना होगा, क्योंकि चौकीदार-रहित क्रॉसिंग के लिए रेलवे गुनहगार है। पिछले पांच साल में करीब छह सौ लोग रेल दुर्घटनाओं में मारे गए हैं। इनमें से तिरपन फीसद दुर्घटनाएं ट्रेन के पटरी से उतर जाने के कारण और बीस फीसद दुर्घटनाएं चौकीदार-रहित रेलवे क्रॉसिंग के कारण हुर्इं। ये दोनों कारण संसाधन की कमी, तकनीकी खराबी और बदइंतजामी की ओर इशारा करते हैं। यों भारतीय रेलवे को विश्वस्तरीय बनाने का दम खूब भरा जाता है, पर असलियत यह है कि न पटरियां दुरुस्त हैं, न परिचालन समय से हो रहा है, न मुसाफिरों की सुरक्षा की पर्याप्त फिक्र की जा रही है। एक तरफ ट्रेन के दुर्घटनाग्रस्त होने का भय बना रहता है और दूसरी तरह सफर के दौरान लड़कियों-महिलाओं से छेड़खानी से लेकर झपटमारी और मारपीट की खबरें रोज आती रहती हैं। सुरक्षा के तकाजे को अपेक्षित अहमियत पिछली सरकारों ने भी नहीं दी, और यह सरकार भी अपवाद नहीं है। रेल हादसों के कारण रेल मंत्रालय का नेतृत्व बदल दिया गया, सुरेश प्रभु की जगह पीयूष गोयल आ गए। पर क्या फर्क पड़ा?
असल जरूरत चेहरा बदलने की नहीं, प्राथमिकताएं और कार्यप्रणाली बदलने की है। रेल हादसों की वजहं जानी-पहचानी हैं: पटरियों की खराबी, सिग्नल की खराबी, फिशप्लेट का अपनी जगह न होना, कुछ और तकनीकी गड़बड़ियां और कर्मचारियों की लापरवाही, आदि। ये ऐसे कारण नहीं हैं जिन्हें दूर न किया जा सके। सवाल है कि इसके लिए रेल प्रशासन में और रेलवे के नीति-निर्धारकों में इच्छाशक्ति कितनी है। फिर, सवाल यह भी है कि सरकार के लिए क्या चीज ज्यादा मायने रखती है, आम मुसाफिरों की सुरक्षा, समय से ट्रेनों का परिचालन या कथित विशिष्ट वर्ग की सुख-सुविधाओं के लिए संसाधनों का इस्तेमाल? जब से उदारीकरण का दौर शुरू हुआ है, ढांचागत विकास की खूब दुहाई दी जाती रही है। इतने बरसों में यह कैसा ढांचागत विकास हुआ है कि पटरियों की खस्ता हालत के कारण हादसे हो रहे हैं!