– सांत्वना श्रीकांत
तुम्हारे नयनों में जब
उतरती है गोधूलि,
जला देती हूं
एक दीप-
अपने कृष्ण के नाम।
तुम्हारे तृषित अधरों पर
जब गूंजते हैं सात सुर,
तब नृत्य करती है
यह राधा
और-
सदियों से सुप्त
प्रणय-कमल
खिल उठता है।
तुम्हारे नयनों की गोधूलि में,
मुझे दिखते हैं कृष्ण
अपनी राधा से
मनुहार करते हुए,
ठीक वैसे ही जैसे
तुम्हारे रूठने पर
मनाती हूं मैं तुम्हें।
गोधूलि खत्म होने पर,
जैसे चल देते हैं कृ्नष्ण
अपनी राधा से मिलने,
वैसे ही मेरे केश-अरण्य में
चले आते हो तुम
मुझसे मिलने,
जहां मैं जलाए बैठी हूं
एक दीप तुम्हारे नाम।
तुम्हारे अधरों की तृषा को
सिंचित कर रही राधा से
जैसे रोज तृप्त होते हैं कृष्ण,
ठीक वैसे ही मैं भी
पूरित कर देना
चाहती हूं तुम्हें।
हृदय की असीम गहराई में
है मेरा नीड़-कंवल,
जहां अकसर करती हूं
सिर्फ तुम्हारी प्रतीक्षा।
चुलबुली अंगुलियां
सखियां हैं मेरी,
कृष्ण के चले जाने का
दर्द जानती हैं।
वे राह दिखाती हैं मुझे
और हंस कर
तुम्हें कहती हैं-
यह राधा है नए दौर की
उलझे हैं कई पुरुष
इसकी देह से।
मगर इसके केश-अरण्य में
आए प्रथम पुरुष हो तुम,
लौट कर अब
न जा पाओगे।
लौट गए थे कृष्ण
हमारे सभी भावों और शब्दों
को समेट कर।
बेबस सखियां नहीं
हम राधा की,
जाने न देंगी
हम तुम्हें कभी,
तुम प्रथम पुरुष
हमारी इस राधा के,
जीवन-रथ पर सवार युद्धरत,
चलेगी वह भी तुम्हारे साथ
कर्तव्य-पथ पर।
वो दीप जलाए राह तक रही
सदियों से तुम्हारे इंतजार में।
अकेले मत जाना,
ले जाना राधा को
इस बार
अपनी अनंतयात्रा पर।