संजय  वर्मा

अगर मेडिकल साइंस की बेशुमार तरक्की के बाद भी हर साल दुनिया के किसी न किसी कोने से कोई नया विषाणु हमारे लिए नई चुनौती बन जाता है, तो कहना होगा कि बैक्टीरिया इंसान से भी ज्यादा चालाक है। मध्य चीन के एक करोड़ से ज्यादा आबादी वाले शहर वुहान से उभरे कोरोना वायरस के सामने चिकित्सा विज्ञान की आम तैयारियों के चौपट हो जाने का यही मतलब निकलता है। कह सकते हैं कि जिस तरह इंसान ने पृथ्वी पर हर परिस्थिति और वातावरण में ढलना सीख लिया, उसी प्रकार वायरसों ने एंटीबायोटिक्स से समायोजन करना और एक जीव प्रजाति से दूसरी प्रजाति में छलांग लगाना सीख लिया है। कुछ मामलों में तो बैक्टीरिया ने एंटीबायोटिक को नष्ट करने की क्षमता रखने वाले एंजाइम तक बनाने सीख लिए हैं।

मगर इसका एक और सच यह है कि महामारी तक बन जाने वाली ऐसी भीषण बीमारियों के प्रसार की रोकथाम न कर पाना हमारे समय की सबसे बड़ी चुनौती बन गई है। यह वक्त ही बताएगा कि दुनिया कोरोना वायरस के पनपने और अचानक विस्फोट करने की इस घटना से कोई सबक लेगी और समस्या का कोई मुकम्मल इलाज खोजेगी या फिर हमेशा की तरह एक वायरस के मंद या खामोश पड़ जाने के बाद कुछ दूसरे नए और पहले से ज्यादा संहारक वायरसों के लिए जमीनें तैयार करती रहेगी।

शुक्र है कि सार्स जैसे लक्षणों वाली कोरोना वायरस से फैलने वाली बीमारी का जनक देश न तो भारत रहा और न ही भारतीयों की बड़ी तादाद इससे प्रभावित हुई। हालांकि पड़ोसी मुल्क चीन में इसके फैलने के बाद ग्लोबल आवाजाही और चीन के मेडिकल कॉलेजों में भारतीय छात्रों की उपस्थिति से हमारी चिंता स्वाभाविक है। इससे थाईलैंड, आॅस्ट्रेलिया, ताईवान, सिंगापुर, जापान, दक्षिण कोरिया, अमेरिका और विएतनाम आदि देश भी चिंतित हैं।

सभी देशों की चिंता यह है कि उनके कुछ नागरिकों के इस वायरस की चपेट में आ जाने के बाद कहीं ऐसे हालात उनके यहां तो नहीं बन जाएंगे कि हवाई, ट्रेन, बस यातायात रोकना पड़े, शहर खाली कराने पड़ें और रातोरात विशालकाय अस्तपाल बनाने की वैसी ही नौबत आ जाए, जैसी फिलहाल चीन के वुहान शहर में आ गई है।

बीते एक-दो दशक में सार्स, मैड काऊ, इबोला, जीका, बर्ड फ्लू से लेकर स्वाइन फ्लू तक दर्जनों वायरसजनित बीमारियां विश्व पटल पर अपना असर दिखा चुकी हैं। ऐसी स्थिति में यही उम्मीद की जाती रही है कि चिकित्सा तंत्र इन संक्रामक रोगों की रोकथाम में इतना समर्थ हो गया होगा कि इनका कोई तात्कालिक उभार किसी शहर या देश में अचानक पैदा होने वाले आपात हालात पैदा नहीं कर सकेगा। मगर जिस तरह से कोई नया वायरस या किसी पुराने संक्रमण का नया रूप अचानक नए संकट के रूप में सामने आ खड़ा होता है, वह हमारे खानपान, रहन-सहन, दवाओं और टीकों की उपलब्धता के अलावा किसी साजिश के संकेत भी देता है। फिलहाल चीन से आए कोरोना वायरस की ही मिसाल लें, तो इसमें लापरवाहियों के अलावा नए प्रयोगों के नाम पर खानपान की बेतुकी शैलियों और चिकित्सा तंत्र में व्याप्त किसी गहरे षड्यंत्र का आभास होता है।

एक दावा है कि महीने भर के अंदर करीब तेरह सौ लोगों को संक्रमित कर चुके कोरोना नामक वायरल न्यूमोनिया वुहान के एक फूड मार्केट से निकला है, जहां सांपों और चमगादड़ों के मांस से तैयार होने वाली डिश ने कुछ लोगों को अपना मुरीद बना लिया था। खोजबीन से सामने आया तथ्य यह है कि कोरोना वायरस इबोला की तरह चमगादड़ों से ही आया है, लेकिन फर्क यह है कि इसने अपना मौजूदा घातक रूप किसी सांप को संक्रमित करने के बाद धरा है। एक संदेह इस बारे में चीन के खुफिया जैविक हथियारों की फैक्ट्री को लेकर भी किया जा रहा है।

बताया जा रहा है कि वुहान शहर में स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी में खतरनाक वायरसों पर काम होता है। संभव है कि वहीं से यह वायरस आया होगा। चूंकि चीन एक बंद समाज है, इसलिए इसकी असली वजह का शायद ही कभी खुलासा हो, लेकिन यह तय है कि जिस तरह से एक जीव प्रजाति के संक्रमण दूसरी जीव प्रजाति यानी इंसानों में छलांग लगा रहे हैं, उससे हालात वास्तव में विकट हो चले हैं।

कोरोना से पहले बर्ड, स्वाइन फ्लू और इबोला जैसे वायरसों से जुड़ी यह समस्या सामने आ चुकी है कि इन बीमारियों के वायरस म्यूटेशन (यानी उत्परिवर्तन) का रुख अपनाने लगे हैं। इसका मतलब यह है कि मौका पड़ने पर वायरस अपना स्वरूप बदल लेते हैं, जिससे उनके प्रतिरोध के लिए बनी दवाइयां और टीके कारगर नहीं रह पाते हैं। पर एक आशंका यह भी है कि कहीं चिकित्सा का वह बाजार ही तो नए वायरसों की पैदावार के पीछे नहीं खड़ा है, जो हरदम ऐसी बीमारियों के दोहन के लिए तैयार रहता है। यह तथ्य अब छिपा नहीं है कि दुनिया में कोई नई बीमारी सामने आती है, तो उसका टीका और दवा बना कर बाजार में लाने पर दवा कंपनियां सैकड़ों-हजारों गुना मुनाफा कमा सकती हैं। इसलिए इस आशंका को खारिज नहीं किया जा सकता कि इसके पीछे कहीं बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों का ही हाथ हो।

पहले ऐसे कई आरोप लग चुके हैं कि तमाम संक्रामक बीमारियों को लेकर देश-दुनिया में जो हंगामा खड़ा किया जाता है, उनका असली उद्देश्य अरबों-खरबों की फालतू दवाएं गरीब और विकासशील देशों को बेचना होता है। चिकित्सा का यह तंत्र कहीं ज्यादा खतरनाक इंसेफलाइटिस जैसी बीमारियों का सटीक और सस्ता उपचार नहीं खोजता है, जिससे हमारे देश के यूपी-बिहार जैसे राज्यों में हर साल सैकड़ों बच्चों की मौत होती है, लेकिन फ्लू, न्यूमोनिया जैसी संक्रामक और नई बीमारियों को महामारी बताकर एक झटके में अरबों-खरबों डॉलर खींच लेने के इंतजाम कर लेता है। करीब एक दशक पहले हमारे देश में बर्ड फ्लू का खौफ पैदा करके स्विटजरलैंड की दवा कंपनी- रोश से इसकी पेंटेंडेट दवा- टैमीफ्लू के दस लाख कैप्सूल की सरकारी खरीद करवा ली गई थी, लेकिन शायद ही उस दवा का कोई इस्तेमाल हुआ।

वायरसों के रूप बदल लेने और उत्परिवर्तन की क्षमता हासिल कर लेने की हालिया घटनाओं को देखते हुए यह आशंका बेबुनियाद नहीं लगती कि कोरोना को महामारी बनाने के पीछे उद्देश्य बीमारी रोकने से ज्यादा बहुराष्टÑीय फार्मा कंपनियों की बेहिसाब कमाई के रास्ते खोलना हो। हालांकि इन आशंकाओं के बावजूद किसी भी नए संक्रामक रोग से निपटने के इंतजामों में ढील देने का कोई संदर्भ नहीं बनता है। हवाई यातायात के कारण चूंकि श्वसन तंत्र को प्रभावित करने वाले संक्रामक रोगों के फैलने की गति बढ़ गई है, इसलिए हर किस्म की सावधानियां बरतने की जरूरत अनिवार्य ही है।

यह न भूलें कि हवाई यातायात के कारण संक्रामक रोगों को किसी एक देश की हद तक सीमित रखना काफी मुश्किल हो गया है। एक देश में संक्रमण फैलने के बाद इसकी भरपूर आशंका रहती है कि इसके वायरस आठ-दस घंटे में ही दूसरे देश में पहुंच जाएं। इसलिए हवाई अड््डों पर ही यात्रियों की थर्मल स्क्रीनिंग और वायरस से ग्रस्त लोगों को अलग कर उनके अविलंब इलाज की व्यवस्था करना निहायत जरूरी है। पर देखना यह भी होगा कि आखिर हमारा अत्याधुनिक स्वास्थ्य तंत्र ऐसे रोगों को रोकने में कामयाब क्यों नहीं हो पा रहा है।

सवाल यह भी है कि हर नई बीमारी के प्रसार के मौके पर पूरी दुनिया, खासकर गरीब और विकासशील हांफने क्यों लगते हैं और ज्यादातर बीमारियां यहीं क्यों पैदा हो रही हैं। जिस दिन हमें इन सवालों के जवाब मिल जाएंगे, कह सकते हैं कि हम तभी खुद को कोरोना जैसे वायरसों से लड़ने और उनसे हमेशा के लिए निजात पाने का कोई जरिया पा सकेंगे।