ऐतिहासिक नोटबंदी के 50 दिन पूरे होने पर जब सरकार के नुमाइंदे क्रिकेट के मैदान में छक्का लगने के बाद रिबन लहराते हुए ‘चीयर लीडर्स’ की तरह प्रधानमंत्री के जयकारे लगा रहे हैं तो पिछली आठ नवंबर से कतारबद्ध आम जनता यही सोच रही है कि क्या अब वह सरकार और उसके तंत्र से बाहर है। शायद नोटबंदी और प्रधानमंत्री के जयघोषकों के पैर में अभी बिवाई नहीं पड़ी है इसलिए हाशिए के लोगों की पीर को पराई मान कर खारिज कर रहे हैं। लेकिन अभी तक का हाल इसी बात की ओर इशारा कर रहा है कि यह दर्द जयघोषकों तक भी पहुंचना है। तब तक इस बार बेबाक बोल में एक आम मतदाता की जुबानी नोटबंदी के पचास दिनों की कहानी। 

आदरणीय प्रधानमंत्री जी,
नोटबंदी के 50 दिन पूरे हो गए। कतारबद्ध होने की अफरातफरी में मेरे जेहन में तो आप हमेशा बने रहे, लेकिन पूरे यकीन के साथ कह सकता हूं कि आप मुझे लगभग पूरी तरह भुला चुके हैं। याद दिला दूं कि नोटबंदी के बाद ‘मन की बात’ में आपने कहा था-‘मेरा प्यारा गरीब’। मगर अब मैं यह कह सकता हूं कि आठ नवंबर की शाम को नोटबंदी के एलान के वक्त मैं आपके जेहन में बिल्कुल नहीं था। पहचान के लिए बता दूं कि मैं आपका एक मतदाता हूं। मुझे आप बजरिए ‘गोदान’ खेती-किसानी का चिर-परिचित चेहरा बने होरी और धनिया मान सकते हैं तो शहरी संस्कृति में अपनी जगह बनाने की कोशिश करता गोबर या फिर डॉक्टर मेहता या मिस मालती।
‘मेरा प्यारा गरीब’ शब्द इस्तेमाल करने के बाद आपने कानपुर की रैली में नकदीरहित व्यवस्था की वकालत की। इसका मतलब यह हुआ कि कालेधन के खिलाफ छेड़ा गया शुद्धीकरण का अभियान नकदी बनाम नकदीरहित का हो गया है। मोबाइल और आॅनलाइन हस्तांतरण, यही आपके और आपके नुमाइंदों का संदेश है। प्राचीन भारत के किसान से लेकर आज के गोबर तक ने नोट और तकनीक की जुगलबंदी देखी है। सोना, कांसा, पीतल, चांदी, चमड़े से लेकर कागज के नोट तक का सफर याद है। लेकिन नोट का संबंध सिर्फ तकनीक से नहीं, सत्ता और शासित से भी है।
हम आम मतदाताओं की अभी तक यही समझ बनी थी कि भारत में रिजर्व बैंक आॅफ इंडिया एक स्वायत्त संस्था है। जब भारत सरकार राष्टÑीय संपत्ति आरबीआइ के पास गिरवी रखती है, तभी वह नोट छापता है। इस तरह से आरबीआइ के द्वारा छापा गया नोट राष्टÑ की संपत्ति है। एक आम नागरिक राष्टÑ की संपत्ति के एक रूप के तौर पर नोट के जरिए क्रय-विक्रय कर सकता है। इस नोट के जरिए आरबीआइ राष्टÑ के हर नागरिक को इतने मूल्य अदा करने का वचन देता है।
चाहे गांव का होरी हो या शहर के प्रोफेसर मेहता, अगर वे आरबीआइ के दिए नोट के आधार पर हस्तांतरण करते हैं तो इसके लिए कोई अतिरिक्त सेवा शुल्क नहीं देना पड़ता है। शुल्क लेने के उलट राष्टÑ की संपत्ति की लागत पर नोट की छपाई होती है। नागरिकों को मिले नोट की लागत का निर्वहन राष्टÑ करता है। राष्टÑ नागरिक को लेन-देन और व्यापार करने की आजादी मुहैया कराता है। गोबर से लेकर मिस मालती तक इस उदारवादी व्यवस्था के आदी हो चुके थे। यानी हम नागरिकों को इस बात का भरोसा था कि सरकार के दिए नोट से लेन-देन को लेकर कोई परेशानी हुई हो तो राष्टÑ जिम्मेदार है।
लेकिन अचानक से आप आठ नवंबर की शाम को थोड़ी-बहुत राष्टÑीय सुरक्षा की खुशफहमी में जी रहे गोबर को नवउदारवाद के दंगल में उतार देते हैं। उसे जबरन नकदीरहित व्यवस्था का उपभोक्ता बनने को कहते हैं।
गोबर ने डेबिट कार्ड भी इस्तेमाल किया और फोन के सिम कार्ड से भी थोड़ी-बहुत बैंकिंग की। सहकारी बैंकों ने साथ नहीं दिया तो बिग बाजार से पैसे भी निकाल लाया। तकनीक के विकास के साथ उसे कई विकल्प मिले। लेकिन इसमें आरबीआइ का दिया वह सुरक्षा का वादा छीन लिया गया है। आप जिसे प्लास्टिक मनी कहते हैं, आॅनलाइन हस्तांतरण करते हैं उससे हर लेन-देन में किसी न किसी तरह का शुल्क लगना तय है, क्योंकि इसकी लागत सरकार नहीं, बाजार निर्वहन करता है। इसी दौर में देश के सबसे बड़े सरकारी बैंक स्टेट बैंक आॅफ इंडिया ने साफ कर दिया है कि फिलहाल हालात सामान्य नहीं होने वाले हैं। इसके साथ ही बैंकिंग के बाजार में नकदी नोटों के हस्तातंरण पर भी शुल्क लगाने का विचार उछाला गया।
यहीं से उदारवादी विमर्श के खात्मे के साथ होरी और गोबर का खौफ शुरू होता है। प्रोफेसर मेहता और मिस मालती तो यहां फिर भी इस नई व्यवस्था में खपने की कोशिश में हैं, जहां अब नागरिक को उपभोक्ता की पहचान मिल चुकी है। लेकिन होरी और गोबर क्या करेगा…! जिस तरह शुरुआती रपटें ही आरोप लगा रही हैं कि पेटीएम ने घोटाला किया या उसके साथ घपला किया गया, वह यह बताने के लिए काफी है कि आने वाले दिनों में गोबर की हालत में रहने वालों की क्या दशा होती है।
एक आम आदमी के तौर पर मैं आपको याद दिलाना चाहता हूं कि राष्टÑ का चरित्र अगर उदारवादी है तो वह अपने नागरिकों को विकल्प चुनने की आजादी देता है। वह क्या और कैसे खरीदे यह उसकी क्षमता और इच्छा पर निर्भर होना चाहिए। लेकिन आपका भ्रष्टाचार मुक्ति अभियान नकदीरहित व्यवस्था तक पहुंच गया। इस नकदीरहित व्यवस्था को लागू करने में जो सबसे निर्ममता से कुचला गया, वह था एक नागरिक की संपत्ति का अधिकार। उसके आदान-प्रदान की स्वतंत्रता पर कुठाराघात किया गया।
प्रधानमंत्री जी, मेरी आपसे सबसे बड़ी शिकायत यही है कि देश में बैंकों की तरलता खत्म हो गई थी और विशालकाय कारोबारी कर्ज नहीं लौटा पा रहे थे तो तो बैंकों के संकट को खत्म करने के लिए आपने नागरिकों के अधिकार पर हमला कर दिया। हम तो अभी उदारवाद के हिंडोले में झूल रहे थे और कुछ समय पहले दु:स्वप्न में भी ऐसा नहीं सोच पा रहे थे कि राष्टÑ की ओर से आम आदमी पर ऐसा लक्षित हमला होगा कि उसके बटुए की आजादी खत्म हो जाएगी।
यों कमजोर तबकों की वित्तीय आजादी छोटे तौर पर तो इससे पहले भी छीनी जा रही थी। मैं आपको इसका एक छोटा सा उदाहरण देता हूं। दिल्ली से सटे गुड़गांव, नोएडा, खोड़ा के बहुत से इलाकों में देश के कोने-कोने से आए गोबर रहते हैं जो बड़े तबकों की जिंदगी बतौर ड्राइवर, रसोइए, घरेलू सहायक के आसान बनाते हैं। ये गोबर शहर के तंग कोने में रहते हैं, जहां 25 गज जमीन पर चार मंजिल तक मकान बने हुए हैं। इन मकानों में किराया देकर गोबर रहता है। लेकिन मकान मालिक की शर्त यही है कि गोबर उसकी ही दुकान से राशन का सारा सामान लेगा। और मकान मालिक की दुकान में मिलने वाले सामान गुणवत्ता के लिहाज से कमतर और महंगे भी हैं।
लेकिन, गोबर को रात काटने का एक ठौर चाहिए तो उसे दुकान वही चुननी होगी जो मालिक चाहेगा। नहीं तो गोबर का बहिष्कार होगा। गोबर जिस तंग गली में भी रहने जाएगा, उसके साथ यही सुलूक होगा। गोबर के पास मकान मालिक की बात सिर झुका के मानने के अलावा कोई विकल्प नहीं छोड़ा गया है। और आज यही मकान मालिक वाला व्यवहार राष्टÑ की तरफ से किया जा रहा है। हम कितना और कैसे खरीदें यह वह तय करेगा।
एक नागरिक के रूप में हमने जाना था कि उदारवाद मनुष्य के प्रति उदारता की बात करता है और जाहिर-सी बात है कि मनुष्य भी कई श्रेणी के हैं। एक जो खर्च करना चाहता है और दूसरा बचत करना चाहता है, और तीसरा जो उतना ही कमा सकता है जितने में पेट भर जाए। तीनों को इसमें कोई दिक्कत नहीं थी। लेकिन आठ नवंबर के बाद आपने हमें जिस व्यवस्था में धकेला है, वह सिर्फ पूंजी के प्रति उदार है। इसलिए अब आपके जेहन में ‘मेरा प्यारा गरीब’ नहीं, सिर्फ उच्च की ओर अग्रसर मध्यम वर्ग है। और अब आप कर में छूट की बात कहते हैं। जो वर्ग आयकर नहीं देता, नोट से लेनदेन करता है वह आपके एजंडे में नहीं है। इसलिए उसे भी उसी व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए मजबूर होना पड़ेगा। अब आप मानवता नहीं, सिर्फ पूंजी के पक्ष का खयाल रख रहे हैं।
बहरहाल, गोबर ने सुना है कि आॅक्सफर्ड डिक्शनरी ने 2016 के सबसे चर्चित शब्द के लिए पोस्ट ट्रूथ (उत्तर सत्य) को चुना है। शायद आपको भी पता हो कि भारत में गोबरों की, यानी गरीबों की संख्या 40 फीसद से ज्यादा है। और हमारा उत्तर सत्य यही नवउदावरवाद यानी पूंजी की निरंकुशता है और उपभोक्ता बनने की नियति। शायद आप भूले नहीं होंगे कि गोबर और प्रोफेसर मेहता के वोटों ने आजादी के बाद देश में पहली बार बहुमत से गैरकांग्रेसी सरकार बनाई थी। लेकिन बदले में कर्ण रूपी जनता से आपने राष्टÑ की सुरक्षा का कवच ही छीन लिया।
वैसे, बड़े-बड़े अर्थशास्त्री, समाजशास्त्री इस नोटबंदी की प्रक्रिया पर अपनी राय जाहिर कर देशद्रोहियों की सूची में अपना नाम शामिल करवा चुके हैं तो इस गोबर को अपनी राय देने का हश्र पता है। अब राजद प्रमुख लालू यादव से लेकर देश की करोड़ों जनता 50 दिन पूरे होने पर आपको अगर किसी चौराहे पर बुला पाती है, तो वहां मैं भी आपको दिखूंगा, अगर आप होंगे और मुझे देखना चाहेंगे।
आपका
एक मतदाता