हाल में लागू हुए नागरिकता संशोधन कानून के मसले पर देश भर में विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं और इन्हें वापस लेने की मांग की जा रही है। दूसरी ओर, सरकार का साफ कहना है कि इस कानून को लेकर जताई जाने वाली आशंकाओं का कोई खास आधार नहीं है। इसके बावजूद इस कानून को लेकर बहुत सारे लोग आश्वस्त नहीं हो पा रहे हैं और इसे भेदभावपरक बता रहे हैं। किसी मुद्दे पर उभरी आशंका और उस पर बहस में कोई हर्ज नहीं है, क्योंकि इससे किसी पक्ष का वैचारिक आधार मजबूत होता है। लेकिन मुश्किल यह है कि संबंधित मसले का संदर्भ और उसकी वास्तविकता पर गौर किए बगैर कुछ दूसरे देश अपनी मनमर्जी थोपने लगते हैं। इससे किसी संप्रभु देश के उन अधिकारों के सामने कई तरह की अड़चनें खड़ी होती हैं, जिनसे वह अपने आंतरिक मामलों में कोई फैसला ले सकता है। हो सकता है कि यूरोपीय संघ की चिंताओं में भारत में सीएए पारित होने के बाद पैदा होने वाले हालात और उनसे उपजी आशंका शामिल हो, लेकिन इसका औचित्य समझ से परे है। हालांकि भारत की ओर से यह स्पष्ट किया गया है कि सीएए कानून को लागू करना उसका आंतरिक मामला है और इसके प्रति यूरोपीय संघ को नाहक शक नहीं जताना चाहिए।
गौरतलब है कि यूरोपीय संघ की संसद में करीब साढ़े सात सौ सदस्यों में से लगभग सवा छह सौ सदस्यों ने नागरिकता संशोधन कानून और जम्मू-कश्मीर के मसले पर विचार करने के लिए छह प्रस्ताव सामने रखे थे और इस पर गुरुवार को मतदान होना तय हुआ था। निश्चित रूप से यूरोपीय संघ में अपने आंतरिक मामलों पर इस तरह की सक्रियता भारत के लिए चिंता की बात थी। लेकिन ऐन वक्त पर भारत को इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी तब मिली जब यूरोपीय संघ की संसद में इस मसले पर होने वाले मतदान को फिलहाल टाल दिया गया। कई सदस्यों ने जिस तरह प्रस्ताव और बहस के केंद्रीय बिंदु को भारत का आंतरिक मामला बताया और मतदान के लिए हड़बड़ी से बचने की सलाह दी, वह साफतौर पर बताता है कि पिछले कई दिनों से इस मसले पर भारत की ओर से कूटनीतिक स्तर पर की गई मेहनत कामयाब हुई। कहा जा सकता है कि इस मसले पर यूरोपीय संघ के देशों में पाकिस्तान समर्थकों की ओर से भारत के सीएए को लेकर फैलाए जा रहे भ्रम को मुंह की खानी पड़ी है। लेकिन भारत को लेकर पाकिस्तान का जो रवैया रहता है, उसमें आगे भी यह ध्यान रखने की जरूरत है कि ऐसी कोशिशें परवान नहीं चढ़ पाएं।
यों यूरोपीय संघ की संसद में सीएए पर ताजा सक्रियता की खबर आने के बाद से ही भारत ने वहां सदस्यों को अपना पक्ष समझाने की कोशिश की थी और इसे लेकर लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला ने पत्र लिख कर कहा था कि एक देश की संसद द्वारा दूसरी संसद के लिए फैसला देना अनुचित है और निहित स्वार्थों के लिए इनका बेजा इस्तेमाल हो सकता है। उन्होंने यह भी कहा था कि अंतर-संसदीय संघ के सदस्य के नाते हमें दूसरे देशों, खासतौर पर लोकतांत्रिक देशों की संसद की संप्रभु प्रक्रियाओं का सम्मान करना चाहिए। सही है कि इस कानून को लेकर देश में लोगों के बीच कुछ शंकाएं हैं और उन्हें लेकर जनता को विरोध जताने का भी हक है। इसके तकनीकी औचित्य अगर कानून की कसौटी पर परखे भी जाएंगे तो यह देश के ढांचे में सर्वोच्च न्यायालय तय करेगा। लेकिन किसी देश के आंतरिक मामलों पर दूसरे देशों की संसद में प्रस्ताव लाना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संप्रभुता के मान्य सिद्धांतों की अनदेखी ही कहा जाना चाहिए।