पुणे के भीमा-कोरेगांव से शुरू होकर तनाव, तोड़-फोड़ और हिंसा की लपटें जिस तरह तेजी से पूरे महाराष्ट्र में फैल गर्इं और अब कई दूसरे राज्यों में भी इसकी तपिश महसूस की जा रही है वह बेहद चिंताजनक है। शुरुआत एक जनवरी से हुई, और हफ्ते भर बाद भी शांति कायम नहीं हो पाई है। अलबत्ता महाराष्ट्र पुलिस ने तोड़-फोड़ और जातीय हिंसा भड़काने के आरोप में कुछ गिरफ्तारियां की हैं और धरपकड़ का सिलसिला फिलहाल जारी है। नए साल के पहले दिन से जो हुआ वह कई मोर्चों पर काहिली का नतीजा है। पुणे के एक कोने में स्थित भीमा-कोरेगांव में एक जनवरी को हर साल दलित संगठन 1818 में पेशवा राज पर ईस्ट इंडिया कंपनी की जीत का जश्न मनाते आए हैं। स्वाभाविक ही यह विचित्र लगने वाली बात है। पर दलित संगठनों के इस आयोजन को दो तरह से समझा जा सकता है। एक तो यह कि अंग्रेजों की तरफ से लड़ने वालों में महार समुदाय के सैनिकों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। दूसरे, पेशवा राज की विदाई में महार और अन्य दलित समुदायों ने अपनी सामाजिक मुक्ति भी देखी थी।
बहुत-से लोगों को विचित्र लगने के बावजूद यह ‘स्मृति दिवस’ बिना रोक-टोक के आयोजित होता और चुपचाप निबट जाता रहा है। लेकिन इस साल दो सौवां वर्ष होने के कारण भीड़ अधिक जुटने की संभावना थी और जुटी भी। इसके मद््देनजर पुलिस को सतर्क और सन्नद्ध रहना चाहिए था। खासकर इसलिए भी, कि कुछ ही दिन पहले इलाके में मराठों और दलितों के बीच टकराव का वाकया हो चुका था। लेकिन पुलिस ने न केवल पहले से एहतियाती सतर्कता में कोताही दिखाई बल्कि बाद में तनाव और हिंसा की लहर को फैलने से रोकने में भी वह नाकाम रही। लेकिन इस सारे फसाद को सिर्फ कानून-व्यवस्था की नजर से देखना नाकाफी होगा। सवाल है कि हमारा राजनीतिक नेतृत्व हालात पर काबू पाने और सौहार्द का संदेश देने में क्यों कमजोर साबित हुआ? भीमा-कोरेगांव के मामले को लेकर जिस तरह पूरे महाराष्ट्र में दलितों की एकजुटता दिखी है और अन्य राज्यों में भी सुगबुगाहट सुनाई दी है, उससे जाहिर है कि यह कोई स्थानीय मामला नहीं रह गया है, बल्कि इसके जरिए दलित उत्पीड़न का मुद््दा एक बार फिर राष्ट्रीय सतह पर आ गया है। इससे भाजपा का चिंतित होना स्वाभाविक है जो अपने हिंदुत्व वोट बैंक को एकजुट रखते हुए पिछड़ों और किसी हद तक दलितों के बीच भी पैठ बनाने में सफल हुई और इसका एक के बाद एक कई चुनावों में उसे फायदा भी मिला है। लेकिन मोदी की तमाम कोशिशों के बावजूद, भाजपा के प्रति दलितों के मन में अविश्वास पैदा करने वाली घटनाएं भी होती रही हैं।
पहले रोहित वेमुला प्रकरण, फिर गुजरात का उना कांड, फिर उत्तर प्रदेश में सहारनपुर कांड, और अब भीमा-कोरेगांव। इससे भाजपा और मोदी के माथे पर चिंता की लकीरें पढ़ी जा सकती हैं। लेकिन विडंबना है कि यह सब जिस अंतर्विरोध का परिणाम है उसका सामना करने की तैयारी उन्होंने कभी नहीं दिखाई। उना कांड पर मोदी ने दो बार बहुत तीखा बयान दिया था। लेकिन वह जुबानी जमाखर्च ही साबित हुआ। उनके उन चर्चित बयानों के बाद भी ‘गोरक्षकों’ के उत्पात और लोगों को डराने-धमकाने का सिलसिला चलता रहा। इसी तरह हिंदुत्व के नाम पर नए-नए नाम से संगठन निकल आते हैं और वे अपने को कानून से ऊपर समझते हुए अवांछित गतिविधियां करते रहते हैं। उनके हौसले क्यों बुलंद हैं, जबकि केंद्र के साथ-साथ ज्यादातर राज्यों में भाजपा की ही सरकारें हैं? बहरहाल, महाराष्ट्र सरकार ने न्यायिक जांच का वादा किया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि जांच से जल्दी ही सारी सच्चाई सामने आ जाएगी।