रमेश चंद मीणा

मन से आगे और तन से परे इस दुनिया में कुछ नहीं होता। जबकि हर मंच यही कहता है कि मतभेद हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं है। यह सुनने और कहने दोनों में अच्छा लग सकता हैं पर यह पूरा होता कहीं नजर नहीं आता है। यह कहां और कैसे पूरा होगा? क्या कोई ऐसी जगह या कोई ऐसा मंच है, जहां ऐसा संभव होता हो? गांव, शहर, नगर और देश और प्रदेश में कई मंच, संगठन और दल बने हुए हैं, पर यह बात किसी में कहीं भी पूरी होती हुई नजर नहीं आती है।

इस कथन की पड़ताल घर से ही कर सकते हैं। मां-पिता, भाई-बहन को देख लें। यह आज का एकल परिवार है। संयुक्त तो अब रह नहीं गए हैं, इसलिए बच्चे को जन्म देने वाली मां अपने बेटे को सबसे अधिक चाहती है और यह कथन पूरा होता नजर आता भी है, पर जब बहू आती है, तब मां नहीं तो बेटा इसमें बड़ी बाधा बनता चला जाता है। एक तरह से बहू और सास आमने-सामने की भूमिका निभाते नजर आते हैं। यहां तक कि मां भी एक दिन अपने बेटे को अपने मनोनुकूल न होने पर ग्रंथि पाल कर महसूस कर सकती है कि मतभेद से मनभेद की खाई चौड़ी हो चली है।

बच्चा जब घर से बाहर कदम रखता है तो उसके कदम स्कूल में पड़ते हैं। वह जिनके बीच बैठ कर पढ़ाई करता है, वहां अपने मनोनुकूल जो मिलते हैं, उनसे दोस्ती करता है। बाकी बचे सामान्य या दुश्मन खड़े हो जाते हैं। यही स्कूल वाले जब महाविद्यालय पहुंचते हैं, तब वहां विद्यार्थी संगठनों में अलग-अलग दल के अनुरूप सदस्य बन जाते हैं। यहीं से बीजारोपण हो जाता है मतभेद के कथन का कि दूसरे दल वाले से मतभेद हैं, जो मन को भी भेद ही जाते हैं।

शिक्षक स्कूल का हो, महाविद्यालय या विश्वविद्यालय का, क्या वहां ऐसा होता हुआ देख सकते हैं? मैं स्कूल से लेकर अंतिम संस्था तक में रह कर देख चुका हूं। इसलिए कह सकता हूं कि अगर न मिले मन तो मतभेद भी होगा ही, जो सूक्ष्म या प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। वे जो शिक्षित हैं और शिक्षित करने का दावा करते हैं, वे मन के साथ ही अपने-अपने छोटे-छोटे गुट बना लेते हैं। वे अपने मत के लोगों से मन से बात करेंगे और दूसरे से ऊपरी हंसी के। तनिक अंदर झांकें तो कतरनी चलती हुई देखी जा सकती है। पर वहां नौकरी का सवाल होता है, इसलिए जगह कोई नहीं छोड़ता, सब चलता रहता है।

समाज यानी गांव, शहर या महानगर में कुछ समूह ऐसे होते हैं, जहां लोग एक साथ दिख सकते हैं। गांवों कभी चौपाल हुआ करती थी, अब चाय के ढाबे होते हैं, जहां दस-पांच लोग बैठे नजर आ जाते हैं। वे सरपंच के चुनाव में वोट डालने के बाद से ही इस या उस दल में बंट कर रह जाते हैं। जाति और पार्टी के अनुसार छोटे-छोटे समूह में बंट कर रहते हुए देखे जा सकते हैं। इनके अलावा, जमीनी झगड़े भाई-भाई को एक नहीं रहने देते। ऐसे में मन के अनुसार जिसका समर्थन जिस समय कर दिया, वह उसके साथ होगा, चाहे वह जाति का हो या पार्टी का। इसी क्रम में जब हम गांव से शहर की ओर बढ़ते हैं तो कई गैरसरकारी संगठन या एनजीओ बने देखे जा सकते हैं।

जिसकी भी सरकार हो उसके कार्यकलापों के बारे में विपक्ष के नेता से पूछा जाएगा, तब वह उसे एक सौ फीसद असफल कहेगा। प्रतिपक्ष की छोड़िए, पक्ष की पार्टी में रहने वाले कई तरह के लालच में पार्टी से जुड़े हुए अवश्य दिखते हैं, वरना एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते हैं। इसलिए मतभेदों को छिपा कर रखने वाले मनभेद को भी सौ तालों में रखते हैं, वरना अगर सौ विधायक भी है तो सौ मत हो सकते हैं, जो अवसर पाते ही गिरगिट की तरह बदलते हुए देखे जा सकते हैं। वे अपने नेता के इस वाक्य- ‘हमारे बीच मतभेद हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं है’ को आईना दिखाते रहते हैं। बेशक उनके मत एक जगह हैं, पर मनभेद की कौन गांरटी दे सकता है?

इस सबसे गुजरने के बाद हम समझ चुके हैं कि ऐसा कोई मंच नहीं हो सकता है, जहां मतभेद होने पर भी मनभेद न होता हो! यहां तक कि आध्यात्मिक मंचों यानी अलग-अलग बाबाओं के पंथों में भी एक धारा के होने के बावजूद इन सबके अपने-अपने मंच और मत हैं। सब अलग हैं। मतभेद के साथ-साथ मन से भी बंटे हुए हैं जो अपनी-अपनी ढपली बजाते हुए आरोप लगने पर जेल तक जा सकते हैं। एक ही जगह बची है ‘भक्त’ हो जाना, जहां मनभेद जैसी बात होने के मौके या गुंजाइश नहीं है। विचारहीन होकर ही मत और मन के भेद से मुक्त हुआ जा सकता है, जो राजनीति में संभव नहीं है। जबकि यह जुमला राजनीति में ही पैदा हुआ है, जहां जटिल वक्त में कहा जाने वाला वक्तव्य यही है- ‘हमारे यहां मतभेद हो सकते हैं, पर मनभेद नहीं हैं।’