भाजपा की तरफ से राज्यसभा सदस्यता ग्रहण करने के बाद ‘सही-गलत के युद्ध’ में सिद्धू ने पार्टी को धता बता दिया। इस मौके पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि सभी ईमानदार लोगों को भाजपा से इस्तीफा दे देना चाहिए। इसके जवाब में लोगों ने सोशल मीडिया पर प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव और आनंद कुमार की ‘ईमानदारी’ जबरन याद कराने की कोशिश की। यह किसी से छिपा नहीं कि ईमानदारी और सत्य पर बदलते बोल की वजह आगामी पंजाब चुनाव है। पंजाब की मिट्टी पर अपनी फसल काटने की तैयारी में नेताओं का दिल और नजरिया बदल रहा है। तो इसी मौकापरस्त नजरिए पर इस बार का बेबाक बोल।

वाह गुरु! मौके पर चौका मारने के आह्वान के साथ राजनीति में अवतरित हुए पूर्व राज्यसभा सांसद नवजोत सिंह सिद्धू ने तमाम तुकबंदी को दरकिनार करते हुए ऐसा छक्का जड़ा कि मैदान में मौजूद तमाम खिलाड़ी बस हक्के-बक्के रह गए और उनका पार्टी नेतृत्व मरणासन्न हो गया। यही मौका, आज की राजनीति का नया ‘वाद’ है। इस समूचे सियासी सिलसिले में मौका ही सबसे महत्त्वपूर्ण है। सत्ता के शिखर की ओर अग्रसर भारतीय जनता पार्टी ने 2014 में जब उन्हें उनके चुनाव क्षेत्र अमृतसर के टिकट से महरूम किया तो अटकलें यही थीं कि वे पार्टी छोड़ देंगे। उनकी हमनाम पत्नी नवजोत कौर सिद्धू ने तो पंजाब के अकाली नेतृत्व और अकाली-भाजपा गठबंधन के वरिष्ठ भागीदार अकाली दल के खिलाफ मोर्चा खोल ही रखा था। ये अटकलें इसलिए भी गर्म थीं कि 2003 में सिद्धू जब भाजपा में शामिल हुए तो उससे पहले वे कांग्रेस में दाखिल होने की कोशिश कर चुके थे। बहरहाल, इस बार चर्चा उनके आम आदमी पार्टी का दामन थामने की है।

कारण साफ है। पंजाब में अब तक के राजनीतिक हालात के मुताबिक दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल का पलड़ा वहां भी भारी दिखाई दे रहा है। गौरतलब है कि जब देश भर में आम आदमी पार्टी को लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त का सामना करना पड़ा था, तब भी पंजाब में उसके चार सांसद जीत कर आ गए। दीगर है कि केजरीवाल के गृह प्रदेश हरियाणा की सभी सीटों पर उनकी पार्टी के उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई। उसमें गुड़गांव में पार्टी के तब के कद्दावर नेता योगेंद्र यादव की हार भी शामिल थी। अभी केजरीवाल ने पंजाब में संभावनाओं को देखते हुए शायद सिर-धड़ की बाजी लगा रखी है। दिल्ली में कुछेक पंजाबी शिक्षकों की भर्ती का विज्ञापन या अरविंद केजरीवाल की पंजाब को लेकर प्रतिबद्धता का गुणगान अखबारों के पन्नों पर आए इश्तहारों के जरिए होता ही रहता है। इन इश्तहारों के ऊपर टंगी ईमानदारी और कमखर्ची का पर्दा भी अब उड़ गया लगता है।

बहरहाल, सिद्धू दंपति एक अरसे से अकाली-भाजपा गठबंधन में छटपटा रहा था। यह मौके-बेमौके जाहिर भी हो रहा था। सिद्धू की विधायक पत्नी तो पंजाब में सरकार पर नशा माफिया को समर्थन देने का आरोप भी लगाती रही हैं। खुद सिद्धू पंजाब में सत्तारूढ़ बादल परिवार के खिलाफ अपना आक्रोश जगजाहिर कर चुके हैं। एक अरसे से वे पार्टी के अंदर इस गठबंधन को तोड़ने की वकालत कर रहे थे और इसकी कोशिश में भी लगे थे। लेकिन मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बंधन इतना मजबूत था कि ये कोशिशें मुंह की खाती रहीं। यों भी, वरिष्ठ बादल की देश के विपक्ष में अपनी एक मजबूत जगह है। हालांकि वे पंजाब में सत्ता की कुंजी अपने बेटे सुखबीर बादल को दे चुके हैं, पर असल में विपक्ष में अकाली दल का रुतबा ‘बड़े बादल साहब’ के सिर पर ही है।

पंजाब में सत्ता की भागीदारी में भाजपा फिलहाल जूनियर पार्टनर की तरह है। राज्य की 117 सीटों में से भाजपा के खाते में महज 23 ही हैं। लेकिन इस अनुपात के मुताबिक देखें तो सत्ता में इसकी भागीदारी ज्यादा ही है। बादल परिवार के भरोसे पर ही भाजपा नेतृत्व ने अमृतसर में सिद्धू की जगह अरुण जेटली को उतार कर अपना सबसे बड़ा सियासी दांव खेला था। जेटली ने चुनाव क्षेत्र में ‘बाहरी’ का दाग धोने के लिए आनन-फानन में चुनाव प्रचार के दौरान ही वहां मकान भी खरीदा। लेकिन कांग्रेस की वहां से पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को लड़ाने की चाल के आगे वे औंधे मुंह गिरे। जेटली की हार भाजपा के लिए राष्टÑीय शर्म की तरह थी, जिसकी भरपाई जेटली को केंद्रीय मंत्रिमंडल में नंबर दो बना कर करने की कोशिश की गई, जबकि बाकी पार्टी के दिग्गज घर बैठे रह गए। उस चुनाव में हार के बाद सिद्धू और जेटली में 36 का ऐसा आंकड़ा बना, जिसे तमाम कोशिशों के बाद भी कोई बराबर नहीं कर पाया।

हताशा का आलम यह था कि इधर हाईकमान नहीं सुन रहा था और उधर पंजाब में सिद्धू की पत्नी की आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह गूंज रही थी। हालांकि पंजाब में मोर्चा उनकी पत्नी ने संभाल रखा था। तो क्या ताजा घटनाक्रम इन्हीं कड़ियों का हासिल है?
अब अकाली दल ने सिद्धू को अवसरवादी ठहराया है। लेकिन मौकापरस्ती के इल्जाम पर सिद्धू शायद ही विचलित होंगे। थोड़े समय की राजनीति ने उन्हें भी कुछ-कुछ सिखा दिया है। यों राजनीति में प्रवेश के समय ही सिद्धू का यह बयान बेहद साफ, सख्त और अतिमहत्त्वपूर्ण है ‘ओ गुरु…मैं हो गया शुरू। मौके पर चौका मारो। लोहा गर्म है। आदमी की सफलता का सबसे बड़ा रहस्य यही है कि वह अवसर की तलाश में रहे’। आज जब वे मौका देखते ही कभी की अपनी ‘मां समान पार्टी’ को धता बता कर निकल गए हैं तो उनके बयान पर यही कहा जा सकता है, ‘कोई शक’! क्या उन्होंने मौजूदा राजनीति की परतों को ठीक से समझ लिया है और उसके मुताबिक अपने भविष्य की चिंता में सुरक्षित जमीन तैयार कर रहे हैं?
दरअसल, राजनीति और मौकापरस्ती एक जैसे शब्द हो गए हैं। दलबदल कानून के बावजूद जब पार्टी और सरकारें बनती-बिगड़ती हैं तो फिर यह अवगुण कहां रह गया! और फिर सिद्धू ने तो राजनीति का आगाज ही ‘अवसर’ देख कर किया। यह देखिए सिद्धू की ही जुबानी :
‘पिपली वाले पत्तेयो ओ
कादी खड़ खड़, खड़ खड़ लाई है
पुराने पत्ते झड़ गए
हुन रुत नवेयां दी आई है’।
आखिर 13 साल में भाजपा भी तो पुरानी पड़ गई। वैसे भी भाजपा की उम्र के लिहाज से देखा जाए तो आम आदमी पार्टी को तो अभी जवान होना है। अभी तो यह बच्चा पार्टी की तरह ही है। अभी तो दिल्ली सरकार को एक साल ही हुआ है और सियासी अनुभव की कमी के कारण वह लड़खड़ा रही है। लाभ के पद मामले में 21 विधायकों की सदस्यता पर खतरा मंडरा है। जनलोकपाल के लिए आंदोलन कर खड़ी हुई पार्टी के अगुआ अरविंद केजरीवाल के तानाशाह रवैए पर सवाल उठ रहे हैं।
यह अलग बात है कि कभी केजरीवाल पर सिद्धू का क्या नजरिया था। इन दिनों तो नजरिया ही सबसे पहले बदलता है। फिर जब पार्टी बदलनी है तो इसे भी क्यों न बदल लिया जाए। केजरीवाल साहब के बारे में जरा सिद्धू जी के पुराने नजरिए को याद करें, ‘वो नौटंकी कंपनी वाला केजरीवाल साहब। उसको देख कर तो गिरगिट भी शरमा जाए। कितने रंग बदले हैं। पॉलिटिक्स में नहीं आऊंगा, आम आदमी पार्टी बना ली। सिक्योरिटी नहीं लूंगा, जेड सिक्योरिटी ले ली। बंगला नहीं लूंगा, लेकर उसमें झाड़ू लगाने लग गया’। ये तो सिद्धू वचन ही हैं। लेकिन अब मौका इन सबको भूल जाने का है। वैसे भी इंसान खासकर राजनीति के मामले में अपनी क्षीण स्मरण शक्ति के लिए जाना जाता है और सिद्धू की इस पटकनी के बाद किसे शक है कि वे राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी नहीं हैं।

भारतीय जनता पार्टी की किरकिरी इसलिए ज्यादा हो रही है कि इतने सुगठित ढांचे और कथित तौर पर आगे की सोच कर दांव चलने वाली पार्टी सिद्धू के इस कदम का अनुमान लगाने में नाकाम क्यों हुई! क्या इस नाकामी ने पार्टी अध्यक्ष अमित शाह की अपने साथ चलने वालों की पहचान करने की क्षमता पर भी सवालिया निशान नहीं जड़ दिया है? प्रसंग के हिसाब से क्रिकेट की भाषा में कुछ कहें तो ऐसा लगा जैसे शाह की रणनीति उस विकेट की तरह निकली, जिसे सिद्धू की गुगली ने जड़ से उखाड़ कर विकेटकीपर के माथे पर जड़ दिया हो। ऐसा नहीं है कि भाजपा को सिद्धू की ‘परेशानियों’ का इल्म नहीं था। ऐसा होता तो उन्हें राज्यसभा में मनोनीत ही न किया जाता। तो क्या भाजपा ने सिद्धू की जरूरत समझने में देर कर दी। या फिर सिद्धू अपनी जरूरतें खुद पहचानते और वक्त के हिसाब से तय करते हैं?

गौरतलब है कि पंजाब में जब सिद्धू की पत्नी की नहीं सुनी गई तो पिछले लगभग तीन साल से पंजाब में गैरहाजिरी के कारण उनकी हताशा का पार्टी को सहज ही अंदाजा होना चाहिए था। और शायद रहा भी होगा। उधर, सच यह भी है कि पंजाब में जब दाल नहीं गली तो सिद्धू ने केंद्र में मंत्री पद पर अपनी नजरें गड़ा दी थीं। पार्टी को इसका पूरा अंदाजा था, लेकिन जातीय, सामुदायिक और क्षेत्रीय समीकरणों का ख्याल रखना प्राथमिक जरूरत होने के कारण मंत्रिमंडल विस्तार में सिद्धू के लिए कोई जगह न निकल सकी। लिहाजा उनके लिए आखिरी दांव का क्षण आ गया था और यह पार्टी को अलविदा कहने के सिवा क्या हो सकता था?

कांग्रेस नेता राजीव शुक्ला का यह कहना वाजिब है कि कैसी पार्टी है यह, लोगों को मनोनीत करवाती है उनकी मर्जी जाने बिना और फिर वे छोड़ कर चल देते हैं। सच यही है कि इस समूचे सिलसिले में देश के राष्ट्रपति पर भी शर्मिंदगी की आंच आई है। पहले प्रणव पंड्या ने पार्टी को शर्मिंदगी का बाइस दिया और अब सिद्धू ने तो बाकायदा राज्यसभा सदस्यता हासिल करने के बाद उससे किनारा कर लिया। ऐसे पदों पर अब जो भी आएगा, उसे शायद बेहतर पता होगा कि कैसे यह मजबूरी का सौदा है। सवाल है कि क्या उच्च सदन की गरिमा के अनुकूल है यह सब? खुद को ‘पार्टी विद डिफरेंस’ कहने वाली भाजपा को सोचना होगा, वरना यह तय लग रहा है कि न तो अब मोदी नायक की तरह देखे जा रहे हैं और न ही शाह उनके सहनायक!

कभी क्रिकेट की दुनिया में सीमित ही सही, एक नाम अरज लेने वाले सिद्धू ने अगर मौके पर चौका जड़ कर इसका फायदा उठाया है तो पार्टी इस मौके से सबक भी तो सीख सकती है। मौजूदा हालात में भारतीय जनता पार्टी जीएसटी बिल पर असहाय दिख रही है। ऐसे में सिद्धू के इस वार का दूरगामी असर होने वाला है। खास कर पंजाब और उत्तर प्रदेश चुनाव के मद्देनजर। देश भर में अपने प्रभाव-स्खलन को रोकने के ‘मौके’ के तौर पर अब भाजपा के पास पंजाब और उत्तर प्रदेश के चुनाव ही हैं। देखना यह होगा कि सिद्धू के इस सियासी दांव से निकलने के लिए अमित शाह की कौन-सी रणनीति सामने आती है।

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