तो क्या अपने विचार और उसकी धारा को लेकर संवेदनशील रहे आरएसएस का अब चेहरा बदलने जा रहा है..! गणवेश में से हाफ पैंट को बदल कर फुलपैंट करने के फैसले को आरएसएस के सफर में एक बड़े बदलाव के तौर पर देखा जा रहा है। एक खास पहचान में रूढ़ हो जाने और एक स्थिर विचार के प्रति प्रतिबद्ध होने के लिहाज से बदलाव की यह घोषणा काफी अहम है। लेकिन इतिहास कई बार हमें बदलाव के चेहरों को लेकर आगाह करता रहता है…!

पर जहां तक संघ का सवाल है, वहां बदलाव की आहट सुनाई दे गई है। अभी शुरुआत हुई है तो संभव है कि जल्द ही इस पर आगे प्रगति हो और यह वेशभूषा से आगे बढ़ कर उसके चिंतन और दर्शन तक भी पहुंच जाए! ऐसा हो तो यह देश के लगभग नब्बे साल पुराने और ‘पुरातनपंथी’ राष्टÑीय स्वयंसेवक संघ के लिए निश्चित ही क्रांतिकारी होगा। मशहूर चीनी कहावत- ‘एक सौ मील का सफर भी पहले एक कदम से ही शुरू होता है’, चरितार्थ हो और संघ कट्टरता और रूढ़िवाद के बंधन को भी इसी तरह दरकिनार करके नए स्वरूप में पेश हो। आखिर इस देश के सौ करोड़ से भी ज्यादा लोगों की आशाएं और आकांक्षाएं ऐसे ही अपने संगठनों से जुड़ी होती हैं। संघ के साथ तो यह खास बात है कि न सिर्फ इसके समर्थकों, बल्कि हाल के दिनों में उसके धुर विरोधियों को भी उससे परिवर्तन की आस हो गई है। उम्मीद यह कि परिवर्तन की यह आहट नेकर के पतलून बनने से कहीं आगे जाकर इसकी मान्यताओं और उनकी स्वीकार्यता को भी पहले से लचीला करने में मददगार होगी।

संघ के स्वयंसेवकों के पहनावे में परिवर्तन की घोषणा करते हुए सह-संघ कार्यवाह भैय्या जी जोशी का यह बयान महत्त्वपूर्ण है कि संघ का वक्त के साथ चलने में विश्वास है। मगर मुद्दा यह है कि यह विश्वास अब आगे बढ़े। ब्रिटिश शासनकाल में ‘वक्त की जरूरत’ के मुताबिक हिंदू धर्म की रक्षा और लोगों को एक संगठित ताकत के रूप में खड़ा करने की जरूरत आज वैध नहीं है। एक गुलाम देश में संगठित होने की जरूरत अलग है, वह क्रांति के लिए या विरोध के लिए हो सकती है। लेकिन एक आजाद मुल्क में ऐसे राष्टÑव्यापी संगठन से अपेक्षाएं अलग हैं। यहां संगठन की यह ताकत देश के विकास, प्रगति व समाज के कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण हो सकती है। समझने की जरूरत अहम है कि यह देश अब एक संविधान की अवधारणा के अनुरूप चलता है, जो संविधान सर्वसम्मत और सर्वोपरि है। ऐसे में उसकी मान्यताओं को स्वीकार कर उसका ही अनुकरण करने के लिए हर भारतीय बाध्य है।

इसी संविधान का हवाला देते हुए ‘भारत माता की जय’ का नारा न लगाने वाले एआइएमआइएम सांसद असदुद्दीन ओवैसी भी कहते हैं कि देश के संविधान में नहीं लिखा कि वे ‘भारत माता की जय’ का नारा लगाएं। जाहिर है कि उनका कहना है कि लिखा होता तो वे यह नारा लगा देते। ओवैसी का यह तर्क कितना पंगु है, उसका जवाब तो जावेद अख्तर ने ही दे दिया कि संविधान तो आपको शेरवानी पहनने को भी नहीं कहता। सुर्खियां बटोरने के लिए ओवैसी का ऐसा प्रलाप कोई नई बात नहीं। वे एक सांस में ‘भारत माता की जय’ न कहने के लिए संघ प्रमुख मोहन भागवत को ललकारते हैं तो दूसरी ही सांस में (जब यह मुद्दा बन जाए और उनका खोखलापन जाहिर हो जाए) वे ‘जय हिंद’ का नारा भी बुलंद कर देते हैं।

बेशक बात संविधान की है जिसकी प्रस्तावना में ही देश को एक धर्मनिरपेक्ष राष्टÑ घोषित किया गया है। जाहिर है कि ऐसे में एक हिंदू राष्टÑ की परिकल्पना पर ही पुनर्विचार की जरूरत है। अगर लंबे समय से यहां ‘सर्वधर्म समभाव’ का सिद्धांत मान्य रहा, तो अब यह एक ऐसी बगिया क्यों न हो, जहां सभी किस्म के फूल खिलें। सही है कि जिस बगीचे में सब तरह के फूल होंगे वहां कुछ कांटे भी होंगे। लेकिन यह भी देखा गया है कि फूलों के खिलने के लिए कांटों का योगदान भी कम नहीं।

आखिर फूलों का महत्त्व भी तो कांटों के मुकाबले ही तय किया जाता है। एक धर्मनिरपेक्ष देश में सभी धर्म अपनी मान्यताओं के अनुसार चलें और अपने अंदर की विषमताओं को अपने तरीके से हल करें तो हर्ज क्या है? आखिर शिंगणापुर मंदिर और हाजी अली की दरगाह दोनों में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है और दोनों की इस व्यवस्था को इन धर्मों की महिलाओं ने चुनौती दी है। वे अपने तरीके से हल करें तो इसमें क्या दिक्कत है? होना यह चाहिए कि सभी धर्म अपने तरीके से अपने अंदर की समस्याओं से लड़ें, उनका कोई आदर्श निवारण करें और एक-दूसरे को मान्यता दें। तभी एक धर्मनिरपेक्ष देश की जमीन और मजबूत होगी।

बहरहाल, संघ की वर्दी में बदलाव की खबर के साथ ही इसके निंदकों के बयानों की बाढ़ आ गई कि वर्दी बदलने से क्या होगा, सोच वही है। जरूरत सोच को बदलने की है। हमारा यह मानना है कि सोच में कहीं न कहीं बदलाव आया है, तभी वर्दी में बदलाव हुआ है। जरूरत अब इस बदली हुई सोच को और विस्तार देने की है, जो आज देश-दुनिया के हालात को देखते असंभव नहीं लगता। दरअसल, संघ और सोच का सवाल उठा ही शायद इसलिए कि संघ के भीतर कई बार सोच में बदलाव देखा जाता है, लेकिन वह दीर्घकालिक नहीं होता। यही विडंबना है। अपने गठन से अब तक यह संगठन तीन बार प्रतिबंध झेल चुका है।

पहले 1948 में राष्टÑपिता महात्मा गांधी की हत्या के बाद, फिर 1975 में आपातकाल के दौरान और फिर 1992 में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद। हालांकि ये सभी प्रतिबंध बाद में हटा लिए गए। जाहिर है कि किसी भी शासन ने संघ को देश के लिए ऐसा खतरा नहीं माना कि उस पर या उसकी गतिविधियों पर प्रतिबंध जारी रहे। ऐसे में यह और भी जरूरी है कि संघ अपनी सार्थकता और प्रासंगिकता को बचाने के लिए अपनी सोच में वर्दी की तर्ज पर ही वक्त की जरूरत के मुताबिक परिवर्तन करे।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि मोदी सरकार के गठन में संघ के स्वयंसेवकों की भूमिका अहम रही है। और संघ के लिए यह एक गौरवशाली उपलब्धि रही कि संगठन के एक प्रतिबद्ध स्वयंसेवक ने देश की कमान संभाली। देखते ही देखते महाराष्टÑ और हरियाणा में भी संघ के स्वयंसेवक देवेंद्र फडणवीस और मनोहर लाल खट्टर सत्तानशीन हुए।

आजादी के बाद यह पहला मौका था कि संघ का परचम इतने ऊंचे शिखर पर लहराया। संघ जिस वैभवशाली राष्टÑ की परिकल्पना करके उसके गठन को समर्पित है यह उसकी एक बड़ी उपलब्धि है। लेकिन अपनी सोच को कट्टरता के पास गिरवी रखने के कारण संघ उसे दीर्घकालिक बनाने में कहीं न कहीं नाकाम रहा। नतीजतन, भाजपा को दिल्ली और बिहार की शिकस्त से दो-चार होना पड़ा। यानी जमीनी चुनावी मोर्चे पर संघ को उतनी कामयाबी नहीं मिली, जितनी लोकसभा चुनावों में मिली थी। और अब आगे के विधानसभा चुनावों में पहले पांच पश्चिम बंगाल, असम, तमिलनाडु, केरल और पुद्दुचेरी में सिवा असम के उम्मीद नहीं और आगे के दो पंजाब और उत्तर प्रदेश में भी भाजपा का भविष्य धूमिल दिखाई दे रहा है। तो आखिर क्या है संघ की भूमिका..!
दरअसल, संघ को राजनीति से अलग करके देखना उतना भी आसान नहीं। जो अपने हाथ में रिमोट रख कर उससे राजनीति को नियंत्रित करे वह भी राजनीतिक ही कहलाएगा।

तकनीकी रूप से वह चाहे महज सांस्कृतिक संगठन होने का दावा करे। यह किससे छिपा है कि आखिर देश की सरकार ही संघ के दिशा-निर्देश में चल रही है। लेकिन संघ की परंपरागत सोच की कसौटी पर देखें तो देश संघ की अवधारणा से बहुत दूर है। इसलिए यह वक्त का तकाजा है कि संघ अपनी सोच में समग्रता लाए। यह भूलना नहीं चाहिए कि अगर इस देश में ‘भारत माता की जय’ का नारा न लगा कर झूठे नायकत्व के दावेदार असदुद्दीन ओवैसी हैं तो इसी देश में जावेद अख्तर भी हैं जो ‘भारत माता की जय’ का नारा बुलंद करते हैं। संघ को अपनी सोच के दायरे में उन्हें जगह देनी होगी। वह भी महत्त्वपूर्ण। तभी ऐसा होगा कि वैसी ताकतें अलग-थलग होंगी जो देश में रह कर भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर और अपने कुछ निजी स्वार्थपरक और राजनीति से प्रेरित ऐसे नारे लगाएं, जिनका मकसद तालियां बटोरने से ज्यादा कुछ नहीं है।

संघ हिंदू संस्कृति की रक्षा और उसके संरक्षण के लिए काम करे तो उससे शायद ही किसी को एतराज हो। आखिर सभी धर्मों को अपनी संस्कृति की रक्षा, विस्तार, विश्वास और संरक्षण का अधिकार है। लेकिन देश के संविधान और उसकी व्यवस्था की रूह में हिंदू राष्टÑ की स्थापना का खयाल एक अतिरंजित विषय है और यह कहना न होगा कि इस पर पुनर्विचार की जरूरत है। संघ स्पष्टत: न भी कहे, लेकिन उसके विचारक और प्रचारक यही आभास देते हैं कि उनके तमाम प्रयास हिंदूराष्टÑ की स्थापना की ओर हैं। यही अगर संघ एक धर्मनिरपेक्ष राष्टÑ के सिद्धांत को मानते हुए अपने दरवाजे सभी के लिए खोल कर समूचे समाज को साथ लेकर एक आदर्श राष्टÑ की कल्पना को साकार करने की ओर अग्रसर हो तो सभी उसके साथ कतारबद्ध नजर आएंगे।

कट्टरवादी सोच के कारण संघ के सामाजिक कार्य भी गौण हो जाते हैं और उसकी विरोधी ताकतों का सारा ध्यान उसकी कट्टरता की ओर केंद्रित हो जाता है। देश में ऐसे कई मौके आए हैं जब संघ ने अपनी सामाजिक भूमिका को बड़ी ठसक के साथ अदा किया है। ऐसे में जब सोच में बदलाव की शुरुआत हो ही चुकी है तो इसे आगे बढ़ाने में हर्ज क्या है? यह सर्वविदित तथ्य है कि आप दूसरे के सम्मान के तभी हकदार होंगे अगर आप उनका भी सम्मान करेंगे। देश में अगर आपकी सोच के विपरीत कोई उग्र प्रतिक्रिया होती भी है तो उसका उससे भी तीव्र उग्रता से जवाब देने की क्या जरूरत है! उसे आप अपने तर्कों से भी निरस्त कर सकते हैं।

खास बात यह है कि संघ जो कर सकता है वह उसके इशारों पर नाचने वाली भारतीय जनता पार्टी भी नहीं कर सकती। भाजपा यह कर सकती है कि कालेधन पर अपना रुख बदल ले या राम मंदिर पर पीठ दिखा दे और उन्हें चुनावी जुमलों का दर्जा दे दे, फिर वह चाहे पार्टी के सर्वशक्तिमान अध्यक्ष अमित शाह के लबों से फूटे बोल ही क्यों न हों। लेकिन संघ ऐसा नहीं कर सकता। यही कारण है कि आरक्षण पर संघ अपने रुख पर कायम रहा। चाहे उसका हर्जाना बिहार की शर्मनाक हार के रूप में ही चुकाना पड़ा हो। संपन्न वर्ग को आरक्षण छोड़ना होगा, यह तर्क कायम रहा। यह अपेक्षा संघ से ही की जा सकती है, न कि चुनावी गणित बिठाती भारतीय जनता पार्टी से। लेकिन अगर संघ के विचार का सीधा असर भाजपा की राजनीति और उसके चुनावी गणित पर पड़ता है तो सवाल उठेंगे।

संघ के लिए समाज और राष्ट के निर्माण में अपनी महती भूमिका निभाने की दिशा में यह दुर्लभ मौका है। तेजी से अपनी लोकप्रियता खो रही भाजपा सरकार से इसकी अपेक्षा कम है। यह हैरत की बात है कि संभावित चुनावी नुकसान भी पार्टी को डरा नहीं रहा और उसके मंत्रियों और अन्य नेताओं का बड़बोलापन बढ़ता जा रहा है। और कम हो भी क्यों, जब खुद शाह कह बैठते हैं, ‘अगर गलती से भाजपा की हार हुई तो नतीजे बिहार में आएंगे और पटाखे पाकिस्तान में फूटेंगे’।

विरोधाभास तो वहां है कि एक ओर जहां शाह ऐसा बोलते हैं और उनके शीर्षस्थ नेता तमाम कूटनीतिक शिष्टाचार को दरकिनार करके पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ से गलबहियां डालने लाहौर उतर जाते हैं। तो सवाल है कि एक स्वयंसेवक रह चुके नरेंद्र मोदी का यह व्यवहार भी संघ की बदलती सोच से किसी तरह का ताल्लुक रखती है…!

बहरहाल, बदलाव की अहमियत तभी है जब वह बुनियादी और ठोस जमीन पर खड़ा हो। संघ की गतिविधियों से ऐसा जरूर लगता है कि लंबे समय से विचार के मोर्चे पर जमी हुई बर्फ अब पिघल रही है। लेकिन अगर यह बदलाव सिर्फ गणवेश बदलने तक सतही रहा तो इतना तय है कि संघ एक बार फिर अपने पुरातन विचारों की चारदिवारी में बंद हो जाएगा।

संघ को लगता है कि उसका दायरा और स्वीकार्यता फैले, तो उसे बुनियादी और ठोस बदलावों के लिए भी साहस करना होगा। खासतौर पर तब जब संघ खुद को राजनीतिक नहीं, सांस्कृतिक संगठन बताता है तो उसे समाज और उसके ढांचे में संबंधों के समीकरण और बराबरी के सिद्धांतों पर अपने वास्तविक विचार साफ करने होंगे।

यह तो नहीं हो सकता कि मोहन भागवत कहें कि महिलाओं को रसोईघर में काम करना चाहिए… या फिर वे सामाजिक रूप से वंचित जातियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था पर समीक्षा की मांग के संकेत से आरक्षण खत्म करने की वकालत करें और संघ के चेहरे में बदलाव की भी बात की जाए..! समाज में स्त्री और दमित-वंचित जातियों की बराबरी के अधिकारों की लड़ाई अगर खुद को एक सांस्कृतिक कहने वाला संगठन लड़ता है, तब जाकर बदलाव को लेकर उसकी प्रतिद्धता पर भरोसा पैदा होगा। वरना तात्कालिक गुबार से चेहरे में भी कोई स्थायी बदलाव नहीं लाया जा सकता..!