पटना से दरभंगा के रास्ते पर समस्तीपुर के करीब दो नेशनल हाइवे एनएच 103 और एनएच 28 एक दूसरे को काटती हैं। इस जगह का नाम है मुसरीघरारी। इसे सत्ता के केंद्र के तौर पर जाना जाता है, जहां से करीब के कम से कम चार जिलों समस्तीपुर, बेगुसराय, वैशाली और दरभंगा की राजनीति नियंत्रित या प्रभावित होती है। चाहें कर्पूरी ठाकुर हों, नीतीश कुमार हों या कोई जिला और प्रखंड का नेता, हर कोई इस जगह से किसी न किसी तरह से जुड़ा हुआ है। मुसरीघरारी का मतलब है चूहे का घर। बहुत सारे स्थानीय लोगों के मुताबिक, इस कस्बे में सभी किस्म के दर्जनों नेताओं की ‘दुकानें’ हैं। इनमें चुने हुए नेता हैं, खुद को साबित कर चुके नेता हैं और उभरते हुए नेता भी हैं। इन दुकानों से होने वाली राजनीति जाति, विकास, स्वाभिमान वगैरह मु्द्दों पर आधारित नहीं होती।
बिहार जैसे राज्य में चुनावी राजनीति का मुख्य मकसद सरकारी सिस्टम का कंट्रोल हासिल करना होता है। चुनाव के बाद होने वाली एनालिसिस में वोट शेयर, सीट शेयर, जाति आधारित गणनाएं और वोटिंग के दूसरे पहलुओं पर बात होती है। हालांकि, इन सारे विश्लेषणों में वोटरों की सत्ता और ताकत से नजदीकी बढ़ाने की इच्छा के बारे में कोई चर्चा नहीं होती। चुनाव के बाद आत्ममंथन के मूड में कुछ बीजेपी नेताओं ने हल्के मूड में कहा, ”हमारे कार्यकर्ता आखिर में हमारे वोटर बने गए और उनके (महागठबंधन) वोटर उनके कार्यकर्ता बन गए।” इसका मतलब यही है कि महागठबंधन के वोटरों में सत्ता के करीब रहने की अपेक्षाकृत ज्यादा तीव्र इच्छा थी। स्थानीय स्तर पर सत्ता के विभिन्न स्तरों की अहमियत को समझने के लिए बिहार राज्य की प्रकृति के साथ साथ यह समझना भी बेहद अनिर्वाय हो जाता है कि अपने मुख्यमंत्री रहने के दौरान नीतीश और लालू ने किस तरह इस राज्य को बदला।
लालू की सत्ता का आधार सामाजिक न्याय या सोशल जस्टिस था। उन्होंने कई पिछड़ी जातियों को स्थानीय सत्ता का चेहरा बना दिया। इसके अलावा, उन्होंने ऐसी जातियों के लोगों को राज्य के सभी पहलुओं पर नियंत्रण करने की शक्ति दे दी। इस प्रक्रिया में राज्य की हालत खराब होती गई और कुछ खास लोगों को ही तरजीह मिलने लगी। इन जातियों से जुड़े मध्यस्थों और सत्ता के दलालों का बदतर होते राज्य के सीमित संसाधनों पर कब्जा हो गया। लालू के राज में इन मध्यस्थों ने संसाधनों का बहुत कम ही आवंटन किया, लेकिन उनका फोकस प्रोटेक्शन देने और मध्यस्था कराने पर रहा। हालांकि, राज्य में मौजूद इन सीमित संसाधनों के साथ कुलीन और संभ्रांतों का एक नया वर्ग अपनी आर्थिक हालात के बेहतर होने की राह देखने लगा। ऐसे लोगों को नीतीश में अपना मसीहा नजर आया। सुशासन और कानून-व्यवस्था पर नियंत्रण के फंडे से नीतीश ने इन सत्ता के पावर ब्रोकर्स की मूलभूत संरचना बदलने की कोशिश की। अपने शासनकाल में नीतीश ने राज्य के दायरे में आने वाले कई सामाजिक समूहों को पंचायती राज व्यवस्था में तमाम तरह के आरक्षण दिया। महादलित युवाओं के लिए विकास मंत्र और तोला सेवक जैसे पद बनाए गए। आर्थिक तौर पर कमजोर जातियों, महिलाओं और महादलितों के बीच से मुखिया चुने जाने लगे। राज्य के सरकारी तंत्र में अचानक से हुए इस लोकतांत्रिक बदलाव का असर सत्ता के सबसे निचले स्तर तक हुआ। इससे सबसे पिछड़ी जातियों में भी सत्ता की भूख जाग उठी।
(लेखक लीडन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट फॉर एरिया स्टडीज के रिसर्च स्कॉलर हैं।)