कुछ दिन पहले देखी एक फिल्म का एक संवाद भीतर तक गुदगुदा गया। नायिका के चले जाने के बाद नायक कहता है- ‘मोहब्बत थी इसलिए जाने दिया, जिद होती तो बाहों में होती’! इस संवाद के जरिए प्रेम में स्त्री के स्थान को कितनी सरलता से एक वाक्य में समझा दिया गया। मगर फिल्म का सिर्फ यही पहलू नहीं था। एक स्वतंत्र खयाल वाली अपने पैरों पर खड़ी लड़की का बलात्कार होता है और न्यायालय में सवालों के बहाने उसका चरित्रहनन किया जाता है!
यहां हमें अपराधियों से पीड़ित महिला की त्रासदी के बरक्स कानून के व्यवहार की विडंबना दिखाई देती है। दरअसल, बलात्कार की विभीषिका स्त्री को जीते-जी तो नहीं ही जीने देती है, मरने के बाद भी सामाजिक रूप से उसे सुकून नहीं मिल पाता है। अक्सर हमने बलात्कार की घटना को स्त्री के चरित्र और व्यक्तित्व से जोड़ते हुए देखा-सुना है और चुप रह गए हैं!
हाल ही में नब्बे वर्षीया एक महिला के साथ दरिंदगी की इंतिहा तक बलात्कार की घटना सामने आई। लिफ्ट देने के बहाने उम्र के आखिरी पड़ाव पर पहुंची इस महिला को एक ऐसा जख्म मिला, जिसने शायद उनकी जिंदगी भर की खुशी, जिजीविषा और कर्मठता पर ग्रहण लगा दिया होगा। इस वारदात को हम और आप किस तरह देखेंगे? इसी साल जनवरी में राष्ट्रीय अपराध रेकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट के मुताबिक देश में एक दिन में जहां हत्या की अस्सी घटनाएं हो रही हैं, वहीं बलात्कार के इक्यानबे वारदात हो रहे हैं।
मगर आज हम आंकड़ों के खेल में नहीं फंसते हैं। एक सच्चाई यह भी है कि आज भी पारिवारिक-सामाजिक भीरुता और कुंद सोच अधिकतर मामलों की शिकायत दर्ज नहीं होने देती। पूर्णबंदी के दौरान भी स्त्री के खिलाफ यौन हिंसा और बलात्कार की ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जो सोचने पर विवश कर रही हैं कि आखिर लड़कियां किस उम्र में और स्थान पर सुरक्षित हैं?
यह हालत निर्भया के दोषियों को फांसी देने की बाद की है। अर्थ स्पष्ट है कि कठोर दंड विधान भी बलात्कार जैसे अपराध पर रोक नहीं लगा पा रहा। बात सिर्फ अनजानों द्वारा शारीरिक शोषण की होती तो भी बचाव के इंतजाम की बात की जा सकती थी। मगर अपने घर के दरिंदों से एक बच्ची, लड़की या महिला कैसे बचे? तमिलनाडु में शराब के नशे में एक अशिक्षित और मजदूर पिता तीन महीने तक अपनी नाबालिग बेटी का बलात्कार करता रहा। बात तब खुल करके सामने आई जब लड़की के पेट में दर्द हुआ और वह अस्पताल गई। बच्ची अपने ही पिता द्वारा गर्भवती थी। लड़की की त्रासदी का अंत यहीं नहीं था। वह बच्ची तिरसठ वर्षीय अपने रिश्तेदार के भी शोषण की शिकार हो रही थी।
लेकिन इस अपराध में डूबने के लिए किसी के सामाजिक पिछड़ेपन या अशिक्षा को ही जिम्मेदार नहीं माना जा सकता। मध्य प्रदेश में शिक्षा विभाग से सेवानिवृत्त और उच्च शिक्षित अफसर ने अपनी ही बेटी का दो बार बलात्कार सिर्फ इसलिए किया कि वह किसी के साथ प्रेम में थी। रिश्ते की मर्यादा को तार-तार करती इस आपराधिक घटना में पीड़िता की मां भी सहभागी थी। मां ने यह कहते हुए बेटी को समझाया कि ऐसा करने से शादी के बाद उसकी पीड़ा कम होगी। पीड़िता की बड़ी बहन ने पुलिस में शिकायत दर्ज करा कर उसे बचाया। छानबीन में पता चला कि दोषी पिता ऐसा प्रयास अपनी बाकी दो बेटियों के साथ भी कर चुका था।
कैसी विडंबना है कि हमने बेटियों के लिए कोई भी सुरक्षित स्थान नहीं छोड़ा है। हरियाणा में हाल में ही पुलिस हिरासत में दो लड़कियों के साथ पुलिसकर्मियों द्वारा कई दिनों तक सामूहिक बलात्कार के मामले ने स्त्री के लिए हर सुरक्षित कहे जाने वाले घेरे पर सवाल उठा दिया। ऐसे मामले अगर परिवार के भीतर घटे तो आमतौर पर प्रतिष्ठा के नाम पर दबा दिया जाता है और अगर ये घर से बाहर घटे तो लड़की के चरित्र पर अंगुली उठाई जाती है। सवाल है कि जो समाज और देश कोख में भी बेटियों की हिफाजत नहीं कर पाता, वह घर और सड़क पर क्या ही करेगा!
अक्सर उन्मुक्त सोच को लेकर स्त्री को कठघरे में खड़ा किया जाता है।
मगर ऐसे बीसियों उदाहरण आम होते हैं जो बार-बार चीख कर कहते हैं कि बदलाव की जरूरत पुरुषवादी सोच में है। जिस सोच ने पुरुष को अमानवीय और कई स्थितियों में स्त्री के खिलाफ अपराधी बना दिया है और स्त्री को इस व्यवस्था की पीड़ित। स्त्री को देह से आगे मनुष्य समझने की जरूरत है। सदियों से चली आ रही मानसिकता को बदलने में शायद कई सदी लग जाएं। लेकिन यह तब मुमकिन है, जब बदलाव की मंजिल की ओर कदम लगातार बढ़े। स्त्री विमर्श के कितने ही जरूरी संवाद इन सबकी वजह से प्रभावित होते हैं।
स्त्री-स्वास्थ्य, शिक्षा, कॅरियर पर विमर्श और जनआंदोलन की जरूरत है, लेकिन स्त्री पहले इस डर से तो उबरे, तब तो अपने उत्थान के बारे में सोचे! फिलहाल सच यह है कि स्त्री एक ऐसे सुबह की तलाश में सारा जीवन निकाल देती है, जिस सुबह वह वास्तव में निर्भय होकर उठे और जिए।