सुरेश सेठ

भारत में कृषि की प्रकृति यह है कि यहां किसानों को मौसमी रोजगार मिलता है, यानी फसल के बोने और काटने के समय का रोजगार। भारतीय खेती छिपी हुई बेरोजगारी का मर्ज है। नौजवान खेतों में काम करते हैं, लेकिन परिवार की निबल आय में बढ़ोतरी नहीं होती। इसीलिए युवा अब खेती-बाड़ी को अपना पैतृक धंधा नहीं मानते।

भारत दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति बन गया है। निस्संदेह यह सफलता उल्लेखनीय है, लेकिन इस युवा देश की लगभग आधी जनसंख्या, जो पैंतीस वर्ष उम्र तक की श्रमशक्ति है, एक बात पूछती है कि देश ने चाहे किसी को भी भूख से न मरने देने की गारंटी दे दी हो, मगर उसने नौजवानों को उनकी योग्यता के अनुसार रोजगार प्रदान करने की गारंटी क्यों नहीं दी?

बेशक काम तलाशते नौजवानों को धीरज बंधाने के लिए विश्व में कीर्तिमान स्थापित करती रियायती अनाज बांटने की योजना इस साल के अंत तक बढ़ा दी गई है और अस्सी करोड़ से अधिक लोगों को इसका लाभ मिल रहा है। भारत की आर्थिक विकास दर इस समय दुनिया में सबसे अधिक हो गई है और उधर दुनिया रूस और यूक्रेन युद्ध, चीन और ताइवान की तनातनी के बीच अवसादग्रस्त मंदी झेल रही है और उसकी औसत विकास दर दो से तीन प्रतिशत से ऊपर नहीं है। हमारा देश छह प्रतिशत से ऊपर विकास दर दिखा रहा है। सन 2047 का शतकीय महोत्सव मनाने के समय देशवासियों को एक विकसित राष्ट्र में जीने का वादा कर रहा है।

मगर सवाल है कि महंगाई नियंत्रण की दर काबू में तो आ गई, सरकार ने कह दिया कि भ्रष्टाचारियों के प्रति कोई ढिलाई नहीं होगी, मगर यह क्यों नहीं बताया जा रहा कि कोरोना काल और उसके बाद की विकट स्थिति में इस समय देश में बेकारी की दर अपना शिखर छू रही है। पहले कभी बेरोजगारी की दर इतनी ऊंचाई तक नहीं गई। नए आंकड़े बता रहे हैं कि ग्रामीणों में बेकारी की दर कुछ कम और शहरी आबादी में अधिक है।

भारत में कृषि की प्रकृति यह है कि यहां किसानों को मौसमी रोजगार मिलता है, यानी फसल के बोने और काटने के समय का रोजगार। भारतीय खेती छिपी हुई बेरोजगारी का मर्ज है। नौजवान खेतों में काम करते हैं, लेकिन परिवार की निबल आय में बढ़ोतरी नहीं होती। इसीलिए युवा अब खेती-बाड़ी को अपना पैतृक धंधा नहीं मानते। जीने का अंदाज नहीं मानते। काम या रोजगार की तलाश में उनकी कतारें दूतावासों के बाहर वीजा प्राप्त करने के लिए लगती हैं। वे किसी भी तरह डालर या पौंड देशों में पहुंच कर अपने भाग्य का मिजाज बदल देना चाहते हैं, जिसे वंचित रहने की आदत हो गई है।

‘आक्सफैम इंडिया’ की ताजा रिपोर्ट बताती है कि तरक्की तो हुई, लेकिन देश में अमीर और गरीब का अंतर भी तेजी से बढ़ा है। इतनी तेजी से बढ़ा कि भारत में सबसे अधिक एक प्रतिशत लोग देश की चालीस प्रतिशत कुल संपदा पर कब्जा जमाए बैठे हैं। महिला सशक्तिकरण की बातें होती हैं, लेकिन 2020 की आक्सफेम रिपोर्ट कहती है कि महिलाओं को दुनिया में सबसे कम रोजगार देने वाले देशों के कोष्ठक में भारत दसवें नंबर पर है।

संसद के हर सत्र में हर बात पर हंगामा होता है, कोलाहल होता है। कभी तवांग घाटी में चीनी सैनिकों की धक्कामुक्की पर, जो मानसून सत्र में हुआ। जैसे अब बजट सत्र में अडाणी या हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर हुआ। मगर पूछा जाता है कि वहां और सब चर्चा हो जाती है, लेकिन नौजवानों की बेकारी की समस्या के समाधान पर विशेष चर्चा क्यों नहीं होती? इसके बारे में क्यों यह कह दिया जाता है, जैसा कि इस बजट सत्र में वित्तमंत्री ने भी कहा, कि हम युवाओं को विशिष्ट प्रशिक्षण देंगे और उन्हें नौकरियों के काबिल बनाएंगे।

पूछा जा सकता है कि नौकरी के काबिल तो बना देंगे, लेकिन नौकरियां हैं कहां? सालों से कच्ची असामियां पक्की होने के लिए तरस रही हैं और अभी एक राज्य की ओर से यह समाचार आ गया कि मितव्ययिता के लिए खाली असामियों को खत्म ही कर दिया जाएगा, नए असामियों की बात तो छोड़िए। तो फिर कच्ची असामियां पक्की कैसे होंगी?

माना गया था कि देश में सूचना तकनीक क्षेत्र में तरक्की होगी। देश डिजिटल हो जाएगा और उसके साथ नौजवानों को भी रोजगार मिलने लगेगा। नई शिक्षा नीति में कहा गया कि इसे रोजगारपरक बनाया जाएगा। अभी इंटरनेट की गति को 5जी तक बढ़ाने की घोषणा भी हो गई, लेकिन नतीजा क्या? आक्सफेम इंडिया की रिपोर्ट ने तो यही बताया कि भारत की कहानी यह है कि अमीर और अमीर होते रहे, गरीबों की विपन्नता बढ़ गई।

नई खबर यह है कि 5जी की ताकत बढ़ने के साथ देश के नवनिर्माण के बजाय ठगों के व्यवसाय में वृद्धि हो गई। दुनिया में ‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ के साथ उत्पादन को बढ़ावा देने की बात थी, लेकिन भारत की छोड़िए, अमेरिका में ही पिछले माह तकनीकी कंपनियों में बयालीस हजार छंटनियां हो गर्इं। इसको रोबोटनुमा ‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ ने पैदा कर दिया। विसंगति यह कि छंटनी की रिपोर्ट बनाने में भी इसी ‘आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस’ का योगदान रहा।

यह तो गनीमत है कि आइटी में छंटनी बढ़ी तो बीमा, बैंकिंग और वाहन उद्योग जैसे क्षेत्रों में भर्तियों की गुंजाइश बढ़ गई। बीमा में तिरानबे प्रतिशत भर्ती बढ़ी, तेल में छप्पन प्रतिशत, सेवा में तिरपन प्रतिशत, सोना-जवाहरात में तिरालीस प्रतिशत और बैंकिंग में सैंतीस प्रतिशत। संपदा निर्माण में इकतीस प्रतिशत नौकरियां बढ़ गर्इं। मगर ध्यान दीजिए, ये सभी लाभ मध्यवर्ग को हो रहे हैं।

देश का मजदूर और किसान कहां नौकरी तलाश करे? यह सही है कि इस बजट में वित्तमंत्री ने प्रशिक्षण के लिए कई योजनाओं की घोषणा की है, मगर दूसरी ओर वरिष्ठ पेशेवरों की मांग भी उनतीस प्रतिशत बढ़ गई है। एक और बात, नौकरियां देने में गैर-मैट्रो शहर आगे-आगे हैं। सरकार तो कहती है कि रोजगार क्षेत्र में मजबूती बनी हुई है और यह मजबूती आइटी क्षेत्र की नियुक्तियों में पच्चीस प्रतिशत गिरावट के बावजूद दर्ज हुई है। मगर यह मजबूती या वृद्धि मात्र दो प्रतिशत है।

वैसे टेलीकाम, खुदरा या दवा कारोबार क्षेत्र की खबर यह है कि जनवरी में नियुक्तियों में सालाना आधार पर नौ प्रतिशत, आठ प्रतिशत और चार प्रतिशत की कमी आई है। अगर नौकरियों की इस जटिल समस्या पर विशद चर्चा होती, तो ये नतीजे बाहर आ जाते। अब जब ये सत्य सर्वेक्षण जाहिर कर रहे हैं तो क्या जरूरी नहीं है कि देश में युवा पीढ़ी को नौकरियां देने के लिए काम का ढंग बदला जाए? कोविड महामारी में बहुत से नौजवान उखड़ कर अपने ग्रामीण परिवेश में चले गए हैं।

उन्हें वहां से फिर महानगरों में नौकरियों की ओर आने की प्रेरणा देने के बजाय अगर लघु और कुटीर उद्योगों को बढ़ावा देकर सहकारिता की भावना पैदा करके उनके अपने स्टार्टअप उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए तो निश्चय ही बेकारी की यह समस्या हल हो जाएगी। बेकारी की समस्या का फिलहाल यही हल नजर आता है कि नौजवान नौकरियां तलाशने के बजाय नौकरियां देने वाले बनें।

कहा जा रहा है कि देश का सरकारी और निजी क्षेत्र अधिक से अधिक तीस प्रतिशत युवाओं को रोजगार दे सकता है। शेष सत्तर प्रतिशत नौजवान अगर लकीर से हटकर नए उद्योगों की ओर रुख करें और ऐसे रोजगार प्रदान करने का एक स्वत:स्फूर्त उद्योग जगत बना दें, जिसमें नौकरियां तलाशने वाले हाथ न फैलाएं, रोजगार दफ्तरों के द्वार न खटखटाएं। अपने विशिष्ट प्रशिक्षण के साथ उदार साख नीति की सहायता से आत्मनिर्भर होकर देश के नवनिर्माण की ओर जुटें। इसके लिए शायद न केवल भाग्यनियंताओं को अपनी दृष्टि बदलने की जरूरत है, बल्कि युवा पीढ़ी को एक यथार्थवादी धरातल देने की भी है, जहां वे स्वावलंबी हो सकें।