आलोक कुमार मिश्रा

इसे अमीर-गरीब के भेदभाव और जाति-धर्म जैसे पहचानों से परे लोकतांत्रिक समानता को महसूस करने और बढ़ावा देने के लिए जरूरी समझा गया है। हालांकि कभी-कभी कुछ सांस्कृतिक धार्मिक पहनावे और उनसे जुड़े अधिकारों से इसके अंतर्विरोध उजागर होने पर विवाद भी पैदा हो जाते हैं।

एक जैसी स्कूली वर्दी के इस व्यापक प्रचलन में अक्सर लड़कों और लड़कियों द्वारा पहने जाने वाले पोशाक में लैंगिक अंतर स्पष्ट रहता है। हाल के वर्षों में अन्य लैंगिक पहचानों के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता और स्वीकार्यता से महज लड़के-लड़कियों के द्वैध में बंटे स्कूली पोशाक की सीमाएं उजागर हुई हैं और उन पर सवाल उठाते हुए विकल्प ढूंढ़ा जाने लगा है।

इस वर्ष जब ‘राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ द्वारा ‘विद्यालयी शिक्षा प्रक्रिया में ट्रांसजेंडर सरोकारों का संयोजन’ शीर्षक से तैयार मसविदा सार्वजनिक हुआ तो इस विमर्श को और बल मिला। इस मसौदे का व्यापक उद्देश्य है विद्यालयों के अंतर्गत किन्नर और अन्य वर्गों के प्रति प्रचलित पूर्वाग्रहों और भेदभावों के प्रति जागरूक करना, ऐसे विद्यार्थियों द्वारा झेली जाने वाली चुनौतियों को पहचानना, प्रत्येक स्तर पर ऐसी शिक्षाशास्त्रीय प्रक्रियाओं को बढ़ावा देना जो लैंगिक रूप से संवेदनशील हों और इसी के अनुरूप विद्यालयी नेतृत्व और समुदाय को अभिप्रेरित करना। इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए जिन ढेर सारे उपायों की अनुशंसा की गई है, उसमें लैंगिक रूप से तटस्थ पोशाक की बात भी शामिल है।

समानता को बढ़ावा देने वाली बातें सुनने में जितनी अच्छी और सहज लगती हैं, व्यावहारिक धरातल पर उतनी सहज नहीं हैं। मसलन, इस मसविदे में कई जगहों पर लैंगिक विविधता को मान्यता देने, समावेशन करने और तटस्थता बरतने की जरूरत पर बल दिया गया है। इसके लिए ऐसी ‘कहानियों, गीतों, कविताओं, लोक कलाओं, चित्रों आदि माध्यम’ अपनाने की बात की गई है जो लैंगिक विविधता से परिचित कराती हों और मान्यता देती हों।

साथ ही इसमें इसी लिहाज से समावेशी भाषा गढ़ने और बरतने की आवश्यकता को भी रेखांकित किया गया है। मसविदे के मुताबिक, लड़के-लड़कियों की जगह बच्चे और विद्यार्थी कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। इसी तरह लैंगिक रूप से तटस्थ या निरपेक्ष खिलौनों और खेलों जैसे- ‘कठपुतली’, ‘बिल्डिंग ब्लाक’, ‘पजल’, ‘जानवर’ और अन्य खेल वस्तुओं का प्रयोग करने की बात भी कही गई है। पर जैसे ही हम गहराई से सोचते हैं, विविधता, समावेशन और तटस्थता के संदर्भ में आर्इं बातें, सुझाव और सदिच्छाएं आपस में टकराती दिखने लगती हैं।

दरअसल, ‘तटस्थता’ अधिकांश मामलों में पहले से विद्यमान वर्चस्वशील संरचना, इकाई या व्यवहार को ही आगे बढ़ाने और मजबूत बनाने का कार्य करती है। पहले भी कई विद्यालयों में लैंगिक तटस्थता को अपनाने के क्रम में लड़के-लड़कियों के लिए एक समान वर्दी अपनाई गई है। इसमें अक्सर पहले से ही लड़कों और पुरुषों के लिए प्रचलित और अभ्यस्त पहनावे पैंट और शर्ट को ही शामिल किया गया।

हालांकि इसके पीछे तर्क यह दिया जाता रहा है कि पैंट-शर्ट का पहनावा खेलों सहित शारीरिक गतिविधियों में सभी के लिए अधिक उपयुक्त है। कुछ मामलों में यह सही होते हुए भी इसके पीछे पितृसत्तात्मक समाज में लड़कों के लिए स्त्रैण पहनावे को कमतर मानने और पुरुषोचित पहनावे और व्यवहार को अधिक सम्मानीय और उपयुक्त मानने की सोच हावी होती है।

सवाल है कि क्या हम समता और समावेशन के लिए ऐसे स्कूली पोशाक की परिकल्पना को साकार कर सकते हैं जो सभी लैंगिक पहचानों की विविधता, अनुकूलता, गरिमा और पसंद को समाहित कर सके? चाहें तो हम उपयुक्त साझा स्कूली वर्दी की तलाश कर सकते हैं या बिल्कुल नए तरह के पोशाक की रचना कर सकते हैं।

इसके लिए इन विभिन्न लैंगिक पहचान के लोगों से बातचीत करना, उनकी पसंद-नापसंद को समझना और जरूरी शोध करना होगा। कुछ तत्कालिक रास्ते भी हो सकते हैं। मसलन, एक विकल्प यह भी है कि सबके लिए रंग और स्वरूप में एक जैसी वर्दी हो। इसमें कुर्ता और पैंट एक विकल्प हो सकता है। पर उसके लिए सबकी जरूरतों, पसंद और सहमति को ध्यान में रखकर आगे बढ़ना होगा। संस्थाओं और विशेषज्ञों को इस विषय पर सोचना चाहिए।

लैंगिक संवेदनशीलता, समावेशन और समानता शिक्षा के क्षेत्र में हमेशा से प्रमुख सरोकार रहे हैं। पहले जहां इस पर स्त्री-पुरुष पहचान के दायरे में ही सोचा जाता था, वहीं अब इसके दायरे में अस्तित्वमान और पहचान ली गई अन्य लैंगिक पहचानों को समाहित करने का प्रयास किया जाने लगा है। इसे हम जीवन के हर दायरे में जगह बनाते और गहराते लोकतंत्र और मानवीय गरिमा की स्वीकार्यता के रूप में भी समझ सकते हैं।