भारतीय अदालतों में न्यायाधीशों की कमी के चलते मुकदमों के लंबे समय तक खिंचते जाने और मुकदमों का बोझ लगातार बढ़ते जाने की शिकायत पुरानी है। इसे लेकर कई प्रधान न्यायाधीश अपनी पीड़ा जाहिर कर चुके हैं। एक प्रधान न्यायाधीश की आंखों से तो सेवानिवृत्ति के मौके पर बोलते हुए इस विषय को लेकर आंसू तक निकल पड़े थे। हर विधि आयोग न्यायालयों की क्षमता बढ़ाने की सिफारिश कर चुका है, मगर इस मामले में अभी कोई उल्लेखनीय प्रगति नजर नहीं आई है।

वर्तमान प्रधान न्यायाधीश एनवी रमण भी कई मौकों पर न्यायाधीशों के खाली पदों को भरने और पदों की संख्या बढ़ाने की जरूरत रेखांकित कर चुके हैं। यहां तक कि वे सरकार से तल्ख लहजे में भी इस पर ढुलमुल और पक्षपातपूर्ण रवैया छोड़ने को कह चुके हैं। एक बार फिर उन्होंने अदालतों में जजों की संख्या कम होने से न्याय प्रक्रिया में आने वाली अड़चनों को रेखांकित किया है। तेलंगाना राज्य के न्यायिक अधिकारियों के सम्मेलन में उन्होंने अपनी यह पीड़ा जाहिर की। मगर सरकार इस समस्या को कब गंभीरता से लेगी, कहना मुश्किल है।

हालांकि अदालतों के पास जो संसाधन उपलब्ध हैं, उन्हीं के जरिए न्याय प्रक्रिया में तेजी लाने की भरसक कोशिश की जाती है। न्यायाधीशों के खाली पड़े पद न भरे जा पाने की स्थिति में यूपीए सरकार के समय सर्वोच्च न्यायालय ने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों की सेवाएं लेने, अदालत का कामकाज दो पालियों में बांट कर करने का उपाय निकाला था। उसका असर भी हुआ। मगर अदालतों पर काम का बोझ इतना बढ़ चुका है कि हर न्यायाधीश अगर रोज सौ मामले निपटाने का प्रयास करे तो भी मुकदमों के बोझ से छुटकारा पाने में कई साल लग जाएंगे। स्थिति यह है कि विचाराधीन कैदियों तक के मामले में सुनवाई करने में कई साल लग जाते हैं।

इस तरह कई विचाराधीन कैदी उससे अधिक सजा काट जाते हैं, जितनी उन्हें संबंधित अपराध में मिलती। विचाराधीन कैदी के रूप में लंबे समय तक जेल में बंद रहने की वजह से कई युवाओं का भविष्य ही चौपट हो जाता है। जबकि सर्वोच्च न्यायालय इस बात को अनेक मौकों पर स्वीकार कर चुका है कि विचाराधीन कैदियों के मामलों की सुनवाई जल्द से जल्द पूरी होनी चाहिए। मगर साक्ष्य जुटाने, जांच आदि में देर होती रहती है और फैसला लटका रहता है। इस तरह बहुत सारी जेलों में क्षमता से कई गुना अधिक कैदी भर गए हैं।

कहते हैं कि देर से मिलने वाला न्याय एक प्रकार से अन्याय ही होता है, क्योंकि फैसले में होने वाली देरी के चलते वादी और प्रतिवादी दोनों का काफी धन, समय और ऊर्जा बेवजह नष्ट हो चुकी होती है। आपराधिक मामलों में तो व्यक्ति को अगर बेकसूर घोषित कर भी दिया जाए, तो उसका कोई अर्थ नहीं रह जाता, क्योंकि फैसला आने से पहले तक वह समाज की नजरों में अपराधी बन कर ही जीवन गुजार चुका होता है।

इन तथ्यों से सरकार अनजान नहीं मानी जा सकती। मगर जब भी खाली पदों को भरने की बात आती है, तो धन की कमी का मुद्दा उठ खड़ा हो जाता है। हालांकि धन की कमी को इसमें इसलिए अड़चन नहीं माना जाना चाहिए कि जिस तरह बहुत सारी योजनाओं के लिए धन जुटाया जाता है, इसके लिए भी जुटाया जा सकता है। आखिर देश के नागरिकों को समय पर न्याय नहीं मिल पा रहा तो यह सरोकार सरकार का ही होना चाहिए।