अक्सर लोगों को गलतफहमी हो जाती है कि सूरमा भोपाली यानी जगदीप भोपाल में पैदा हुए। जगदीप भोपाल से पौने चार सौ किमी दूर दतिया में पैदा हुए थे और कम उम्र में ही मुंबई आ गए थे। भोपाली जुबान तो वह जानते तक नहीं थे। मगर ‘शोले’ में सूरमा भोपाली के किरदार में खास भोपाली लहजे में बोले गए संवादों ने उन्हें हमेशा के लिए सूरमा भोपाली बना दिया।

छह रुपए से हुई शुरुआत
विभाजन के दौरान दतिया (मध्य प्रदेश) में पैदा हुए जगदीप के परिवार का सब कुछ तबाह हो चुका था। मां जगदीप को लेकर दूसरे बेटे के पास मुंबई आ गर्इं थीं। हालात बुरे थे। परिवार चलाने के लिए मां को काम करना पड़ता था। मदद के लिए जगदीप ने काम ढूंढ़ना शुरू किया। बीआर चोपड़ा की फिल्म ‘अफसाना’ में तीन रुपए में काम मिल गया। मगर सीन के लिए सेट पर जो बच्चे थे उनमें से किसी को उर्दू संवाद बोलना नहीं आता था, लिहाजा यह काम जगदीप ने किया और उन्हें तीन के बजाय छह रुपए मिले। बाद में उन्हें ‘धोबी डॉक्टर’ में काम मिला। इस फिल्म में उन्हें चुटकी बजाते ही रोने वाले लड़के की भूमिका करनी थी। इस फिल्म के रशेज बिमल राय ने देखे और जगदीप को अपनी फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ के लिए बुला लिया।

यह फिल्म गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की कविता ‘दुई बीघा जोमी’ पर बनी रही थी। पटकथा हृषिकेश मुखर्जी लिख रहे थे। फिल्म में लालू उस्ताद नामक जूता पॉलिश करने वाले एक चंट किशोर की भूमिका थी। मेहनताना था 300 रुपए। मात्र दो साल में जगदीप तीन से 300 रुपए तक पहुंच गए थे। 14 साल के जगदीप, जिन्हें दो साल पहले तक सिनेमा क्या होता है पता नहीं था, इस बात को लेकर हैरान थे कि बिमल राय ने उन्हें 300 रुपए की मोटी रकम दी। एक दिन बिमल राय को अकेले देख जगदीप ने पूछा कि दादा आपने मुझे रोते हुए देखा और अपनी फिल्म में हंसाने के काम पर लगा दिया। क्या देखा था मुझमें?

बात समझ में आ गई
बिमल राय ने कहा कि देखो जो रुला सकता है उसमें इतनी गहराई होती है कि वही सबसे अच्छे ढंग से हंसा सकता है। बात जगदीप की समझ में आ गई। यहीं से जगदीप के जीवन और काम में हास्य का बीजारोपण हुआ था। जगदीप ने बचपन में बहुत बुरे दिन देखे थे। टिन के कारखाने से लेकर पतंगें बनाने तक का काम किया ताकि घर में पैसा आए। खुद संघर्ष किया और अपनी मां को संघर्ष करते देखा था। जगदीप की हंसोड़ की जो छवि हिंदी सिनेमा में बनी, उसकी शुरुआत दरअसल ‘दो बीघा जमीन’ के लालू उस्ताद से शुरू हो गई थी। यह अलग बात है कि ‘दो बीघा जमीन’ एक किसान की अपनी जमीन बचाने की छटपटाहट को सामने रखती थी। यह छटपटाहट इतालवी फिल्मकार विट्टोरियो डी सिका की ‘बाइसिकल थीव्स’ (1948) के नायक की छटपटाहट से मिलती थी, जो अपनी चोरी गई बाइसिकल वापस लाने की जद्दोहजद करता है। ‘दो बीघा जमीन’ जैसी गंभीर फिल्म से जगदीप में हास्य के जो अंकुर फूटे उसकी फसल 60 सालों तक बॉलीवुड में लहलाई थी।

बॉलीवुड ने जगदीप को इसी इमेज में कैद कर दिया तो उन्होंने भी महमूद, जॉनी वाकर, उत्पल दत्त, असित सेन की तरह अपने अभिनय और संवाद अदायगी को एक अलग अंदाज दे दिया। हर दूसरी फिल्म में उसे दोहराया, क्योंकि निर्माता-निर्देशक उनसे यही चाहते थे। हालांकि जगदीप की फिल्म ‘हम पंछी एक डाल के’ को सर्वश्रेष्ठ बाल फिल्म का पुरस्कार मिला था और तब के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने जगदीप के काम से खुश होकर उन्हें अपनी तरफ से खास तोहफा भी दिया था।

जगदीप (29 मार्च, 1939-8 जुलाई, 2020)