नारे तो राजनीतिक हथियार हैं। ये इस बात का संकेत भी होते हैं कि राजनीतिक आका देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। पर जब तक नारों के साथ सही रणनीति का मेल नहीं बने, उनसे कोई नतीजे नहीं निकलते। ऐसे में वे केवल दिखावा बन कर रह जाते हैं। स्वर्गीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने 1960 के दशक के मध्य में ‘जय जवान, जय किसान’ का नारा दिया था। इसके जरिए उन्होंने सीमा की सुरक्षा करने में हमारे जवानों और खाद्य सुरक्षा देने में किसानों की महत्ता बताई। आखिर फौजी खाली पेट मोर्चाबंदी नहीं कर सकता। आज भी वह नारा गूंजता है और प्रेरित करता है। स्वर्गीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 1970 की शुरुआत में नारा दिया- गरीबी हटाओ। उन्होंने गरीबी मिटाने के लिए कई समाजवादी कदम उठाए। चावल-गेहूं की थोक बिक्री सरकारी हाथों में ले ली। हालांकि, बुरी तरह फ्लॉप होने के बाद इस कदम को वापस भी ले दिया। तो क्या इन वर्षों में गरीबी मिट गई? यूपीए-2 की सरकार ही यह तय नहीं कर पाई कि गरीबों की आबादी 21 फीसदी है, 30 है या कि 67 प्रतिशत है।
नारों के मामले में हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बराबर कोई पूर्व पीएम नहीं ठहरता। नारे गढ़ने और जनता की नब्ज पकड़ने में वे माहिर हैं। सबका साथ, सबका विकास, स्वच्छ भारत, मेक इन इंडिया, पर ड्रॉप मोर क्रॉप, जैम (जनधन-आधार-मोबाइल) और भी कई नारे व शब्दों की जुगलबंदी। ये भला किसे पसंद नहीं आएगा! पर हाल में मैं जितने भी लोगों से मिला हूं, सबका एक ही सवाल होता है- नारे तो ठीक हैं, पर उन्हें हकीकत में बदलने के लिए ठोस नीति कहां है? यह सवाल चिंता का विषय है।
‘सबका साथ, सबका विकास’ की बात करते हैं। इसका मूल भाव पार्टी, क्षेत्र, धर्म, जाति आदि के भेद-भाव से ऊपर उठ कर सबके साथ मिल-जुल कर सबकी भलाई के लिए काम करना है। पर इसे अमल में लाने की रणनीति कहां है? राज्यसभा में सबका साथ कैसे मिले, भाईचारा और सहिष्णुता को बढ़ावा कैसे दिया जाए आदि…बताने वाला मैं कोई एक्सपर्ट नहीं हूं। मेरा मानना है कि भारत शुरू से ही काफी सहिष्णु देश रहा है, लेकिन ‘सबका विकास’ को लेकर मुझे चिंता होती है। इस संदर्भ में मुझे यही लगता है कि सरकार की नीति उनके हक में है जो पहले से बेहतर हैं। हम एफडीआई, मेक इन इंडिया, स्मार्ट सिटीज, बुलेट ट्रेन का खूब शोर सुनते हैं। पर इनमें से कौन सी योजना ऐसी है जो मध्य वर्ग या उच्च मध्य वर्ग को फायदा पहुंचाने वाली है? हमें इस बारे में कुछ सुनाई नहीं देता कि सरकार पानी की किल्लत जैसी ग्रामीण आबादी की बढ़ती मुसीबतों को दूर करने के लिए क्या करने जा रही है? वित्त वर्ष 2015 में कृषि में केवल 0.2 प्रतिशत की ग्रोथ रही है। 2016 में भी हालात सुधरने के संकेत नहीं हैं, बल्कि कृषि क्षेत्र की तेजी नकारात्मक में जा सकती है। फिर हम 7-8 प्रतिशत समग्र विकास दर की बात क्यों कर रहे हैं? इसे लेकर हमारी चिंता इसलिए भी है क्योंकि आधी कामकाजी आबादी और पूरी जनसंख्या का 60 फीसदी कृषि पर ही निर्भर है।
खतरनाक संकेत पहले से दिखाई दे रहे हैं। नवंबर 2014 से अक्तूबर 2015 के दौरान ट्रैक्टर की बिक्री पिछले साल इसी अवधि की तुलना में 23 फीसदी कम रही। 2011 में खाद की खपत 141 किलो प्रति हेक्टेयर थी, जो 2015 में घट कर 130 किलो प्रति हेक्टेयर रह गई। कारखानों में बनने वाले उत्पाद खरीदने के लिए ग्रामीण आबादी के पास पैसे नहीं रहेंगे तो ‘मेक इन इंडिया’ का शेर दौड़ नहीं पाएगा। निवेशक लगातार पूछ रहे हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था कब मजबूत होगी? जवाब है- अगले एक साल में ऐसा होने का कोई संकेत नहीं है। हां, अगर कृषि को लेकर सरकार आक्रामक नीतियां बनाए और उन पर अमल करे तो हालात बदल सकते हैं। सबसे पहले तो नरेंद्र मोदी सरकार फसल बीमा प्रणाली तत्काल लागू करे। कम से कम दस करोड़ हेक्टेयर जमीन को इसके तहत कवर किया जाए और कम से कम 40 हजार रुपए प्रति हेक्टेयर का कवर दिया जाए। और इस कवर के लिए प्रीमियम 1200 प्रति हेक्टेयर से ज्यादा न लिया जाए। सभी खेतों का आंकड़ा कंप्यूटर में दर्ज किया जाए और किसानों या रैयतों की जानकारी उसमें अपडेट रहे। आधार कार्ड और फोन नंबर से उनके खाते लिंक्ड रहें और बिना कहे मुआवजे की रकम उनके खाते में डाल दी जाए। प्रधानमंत्री को डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) स्कीम खाद्यान्नों और खाद पर दी जाने वाली सब्सिडी पर भी लागू करनी चाहिए। ऐसे बड़े सुधार जब तक लागू नहीं होंगे तब तक ‘सबका साथ, सबका विकास’ का मोदी का नारा हकीकत से कोसों दूर रहेगा।
(लेखक आईक्रायर में इन्फोसिस चेयर प्रोफेसर फॉर एग्रीकल्चर हैं)
Read also:
संदीप दीक्षित का ब्लॉग: मैं न राष्ट्रवादी हूं और न बनूंगा
ब्लॉग: भाषणों से नहीं मिटेगा भ्रष्टाचार, करके दिखाना होगा मिस्टर मोदी!
