बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को लेकर अभिभावकों की चिंता बढ़ रही है। बच्चे के जन्म लेते ही माता-पिता दाखिले की समस्या को लेकर गंभीर हो जाते हैं। भारत में तो दाखिले की मारामारी और अभिभावक की इच्छानुसार विद्यालयों का चयन लगभग वैसा ही प्रतीत होता है जैसे कि आकाश से तारे तोड़ना। भारत में शिक्षा प्रणाली और परीक्षा व्यवस्था पर बहस होती रही है। भारत में शिक्षा पर दावे-प्रतिदावे भी बहुत होते रहे हैं और अनेक अवसरों पर हमारे शिक्षाविदों ने विद्यालय जैसी पवित्र संस्थाओं को यातनागृह और जेल तक की संज्ञा भी दी है। अनेक शोध, पारिवारिक शोध, समाज और सामाजिक संरचना के गहन अध्ययन के बाद ऐसा माना गया है कि बच्चों का सर्वांगीण विकास ही नहीं बल्कि सामाजिक उत्थान के लिए विद्यालयीय प्रणाली आवश्यक है।
अभिभावकों का भरोसा स्कूलों पर लंबे समय से रहा है। जब कभी भी स्कूलों की कार्यप्रणाली पर बहस की जरुरत हुई तो उस बहस में सरकार नहीं हुआ करती थी। विद्यालय अधिकतर सरकारी ही थे, लेकिन विद्यालय और बच्चों के संदर्भ में अभिभावक और अध्यापक ही विमर्श किया करते थे या समाज के ‘भामाशाह’ विद्यालय विकास में शामिल होकर पुण्य कमाते थे।
पिछले कुछ वर्षों से स्कूल जैसी जरूरी संस्था में कईअसफल प्रयोग हुए और हर बार ऐसे प्रयोगों ने स्कूलों को कमजोर करने का काम किया है। सभी प्रयोग किसी विमर्श या शोध के आधार पर न होकर प्रशासनिक आदेशों के तहत ही होते रहे हैं। इन विचारों के मंथन और शोध की प्रक्रिया में छात्र, अभिभावक और समाज की सहभागिता कभी नहीं रही। स्कूलों को बंद करने जैसी गुपचुप तैयारियां होती नजर आने लगी हैं, जिसका उदाहरण राजस्थान में स्कूल एकीकरण के रूप में हमको देखने को मिल रहा है। यह बहस बिल्कुल बेमानी लगती है कि बच्चों को घर पर पढ़ने दिया जाए और स्कूल की जरूरत नहीं है।
बहस का विषय तो यह होना चाहिए कि विद्यालय की संख्या में बढ़ोतरी कहां हो, कैसे हो, समाज की भागीदारी कैसे बढ़े, स्कूल बंद न हों अदि। स्कूलों की संख्या समाज में बढ़ती आबादी के अनुसार होनी चाहिए।
उच्च प्राथमिक तक की शिक्षा और माध्यमिक शिक्षा व्यवस्था पृथक-पृथक होनी चाहिए, जिससे दोनों स्तरों पर प्रभावी गुणवत्तायुक्त प्रशासनिक नियंत्रण रह सके। विद्यालयों को बंद करने या कम करने की कोशिश कभी नहीं की जानी चाहिए, बल्कि प्रारंभिक से माध्यमिक स्तर तक की शिक्षा पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। बच्चे का शैक्षणिक और सर्वांगीण विकास स्कूल जैसी संस्था में ही संभव है।
सरकारों को अपने विद्यालयों की दशा-दिशा सुधारने की कवायद समाज को साथ लेकर करनी चाहिए। प्राथमिक विद्यालयों के अध्यापकों को सघन प्रशिक्षण दिलाकर उनके वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी की जानी चाहिए। हमारे शिक्षाविदों और प्रशासनिक अमले को समझना होगा कि स्कूल कोई कल-कारखाना नहीं है। स्कूल को देखने का नजरिया व्यावसायिक बनता जा रहा है, जिस पर विराम लगाना होगा। स्कूल हमारे देश की नींव हैं। यह हमारे देश की नींव मजबूत करने का उपक्रम है। अगर एकीकरण ही करना है तो अध्यापकों के चयन बोर्ड का एकीकरण करना चाहिए। एक ही चयन बोर्ड हो, उन्हीं में से अध्यापकों को निजी या राजकीय विद्यालयों में नियुक्त किया जाए।
स्कूलों का निरीक्षण नहीं, अवलोकन होना चाहिए। सरकारी-गैर सरकारी स्कूलों के लिए एक जैसा हो। अवलोकन को मास्टरों की हाजिरी रजिस्टर तक सीमित नहीं रखा जाकर विद्यार्थियों से संवाद किए जाने की जरूरत है। कुछ समय पहले हमारे अध्यापक बच्चों को केवल किताबी ज्ञान ही नहीं करवाते थे, बल्कि उनको सामाजिक प्राणी बनाने का काम भी किया करते थे। क्या हमारे स्कूल वैसा वातावरण फिर से बना सकेंगे, ऐसे प्रयास करने की कवायद कैसे हो, इस पर विचार प्रारंभ होना चाहिए।
बहस तो उच्च शिक्षा को लेकर भी होनी चाहिए। हमारे विश्वविद्यालय और कॉलेज लगभग विद्यार्थी विहीन होते जा रहे हैं। विद्यार्थी इन संस्थानों में छात्रसंघ चुनावों और कुलपति-प्राचार्यों के घेराव के समय ही दिखाई देते हैं। पढने-पढ़ाने का कुछ काम केवल तकनीकी महाविद्यालयों में शेष रहा है। उन विद्यार्थियों का मकसद होता है। हमारे शासन-प्रशासन को इस पर गंभीरता से सोचना होगा। संस्थान मात्र परीक्षा करवाने की मशीनें बनते जा रहे हैं। बहुत सारे कॉलेजों में तो अध्यापकों को पढ़ाए बरसों हो चुके हैं। तमाम तो पढ़ाना भी भूल गए हैं। १
