विश्व बैंक के आकलन के मुताबिक 2050 तक दुनिया की आबादी में 220 करोड़ तक का इजाफा हो जाएगा और सबका पेट भरने के लिए 70 फीसद खाना और उपजाने की जरूरत होगी। गौरतलब है कि इस चुनौती से निपटने की जो तैयारी हर तरफ दिख रही है उसमें तकनीक को सर्वाधिक प्रभावी माना गया है।

कहना मुश्किल है कि तकनीक की चामत्कारिक क्षमता पर यह यकीन आगे जाकर कितना सही या गलत फैसला साबित होगा। बहरहाल, इतना तो तय है कि मजदूर और किसान के फर्क को खत्म करते बाजार के बीच तकनीक अब सबसे बड़ी ताकत के तौर पर खड़ी है। तकनीक पर पकड़ रखने वाले किसानों ने एक तरह से दुनिया मुट्ठी में कर रखी है। जिन देशों की कमाई में खेती की हिस्सेदारी अच्छी है वो अपने बूते खुद खड़ा होने का दमखम तो रखता ही है दूसरों के लिए सीख के नए दरवाजे भी खोल रहा है।

इजराइल में साम्यवाद के मॉडल पर बने ‘किबूत’ अमीर और तसल्ली वाली जिंदगी का नमूना है, जहां सैकड़ों परिवार साझा जीवन बिताते हैं। इस पूरी बस्ती में किसी रिसार्ट जैसी आधुनिक सुविधाएं हैं लेकिन कमाई काम के मुताबिक कम या ज्यादा नहीं बल्कि सबकी बराबर है। फिर चाहे आप किसान हों या डॉक्टर या कुछ और। यहां खेती और डेयरी के बड़े-बड़े कारोबार हैं जो देश की कमाई में सबसे ज्यादा हिस्सा देते हैं। यहां के किसान सधे हुए कारोबारी की तरह पेश आते हैं। पानी की बूंद-बंूद बचत की मिसाल बन चुके इजराइल के ये किसान आज दुनिया के साथ अपनी जानकारी और तकनीक बांट रहे हैं।

दक्षिण कोरिया ने पारंपरिक खेती ‘जिनसिंग’ और नई तकनीक का ऐसा मेल बिठाया है कि वो इस मॉडल पर नाज करते हुए दुनिया को अपने यहां की लहलहाती फसलें आकर देखने की दावत देते हैं। धरती को हर मायने में संभाल कर रखने वाली खेती से वे अपने मुश्किल से मुश्किल इलाकों को उपज लायक बनाने के साथ नमी, जैव-विविधता, देशी फसलों को कायम रखते हुए किसानों को उनके ही संगठन के ज़रिए दुकान और दाम तक की पूरी सहूलियत देने में कामयाब नजर आते हैं।

जहां अफ्रीकी देशों में दूसरे काम धंधों के मुकाबले आज भी खेती पर जोर है तो वहां देश की रीढ़ भी यही है। लेकिन तकनीक में ज्यादा आगे नहीं जा पाने का खामियाजा यह है कि दुनिया के बाजार में उसकी दखल अभी कम ही है और मौसम और जलवायु परिवर्तन में ये देश खाने के संकट से घिरे हैं। ल्ल