यह पहले से साफ था कि कुछ महिला पहलवानों ने जिन सवालों पर अपना आंदोलन जारी रखा था और उसमें दिल्ली में पुलिस के रवैये की वजह से अप्रिय हालात भी पैदा हुए, उस सबके समाधान का रास्ता इस समूचे मामले में पूरी पारदर्शिता के साथ कानूनी कार्रवाई सुनिश्चित करना है। लेकिन विडंबना यह है कि महिला पहलवानों की बार-बार मांग के बावजूद सरकार की ओर से कुछ औपचारिक प्रतिक्रियाओं के अलावा समय पर उचित और ठोस कदम उठाने को लेकर खास रुचि नहीं दिखाई गई।
यह बेवजह नहीं है कि अपनी पीड़ा को जाहिर करते हुए खिलाड़ियों के बीच निराशा फैली और उसके बाद उन्होंने पदक को गंगा में बहाने तक का फैसला कर लिया था। अगर सरकार हर वक्त यह दावा करती रहती है कि वह किसी भी मामले में पीड़ित पक्ष को समय पर न्याय मिलना सुनिश्चित कराएगी, तो महिला पहलवानों और उनके साथ खड़े लोगों के सामने ऐसी स्थिति नहीं आनी चाहिए थी। लेकिन यह सबने देखा कि अपनी वाजिब मांगों के लिए प्रदर्शन करने वालों के प्रति सरकार और पुलिस का रवैया कैसा रहा।
अब जब मामले ने तूल पकड़ लिया है, तब जाकर सरकार ने संवाद और कानून की प्रक्रिया को एक शक्ल देना शुरू किया है। सच यह है कि महिला पहलवानों ने जिस तरह के संवेदनशील मुद्दे के साथ अपना आंदोलन शुरू किया था, उसमें आरोपी और आरोपों की गंभीरता के मद्देनजर न्याय की ओर बढ़ने के दो रास्ते थे। पहला, हर स्तर पर कानून के मुताबिक स्पष्ट कदम उठाना और दूसरा, आंदोलन कर रही पीड़ितों के साथ संवाद स्थापित कर न्याय के लिए सही दिशा में बढ़ना।
अब खेल मंत्री की ओर से कहा गया है कि खिलाड़ियों के आरोपों पर भारतीय कुश्ती महासंघ के निवर्तमान अध्यक्ष बृजमोहन शरण सिंह के खिलाफ 15 जून तक आरोपपत्र दाखिल हो जाएगा और तब तक खिलाड़ी अपना प्रदर्शन स्थगित करने पर सहमत हो गए हैं। इसके अलावा, महिला पहलवानों की यह मांग भी है कि खिलाड़ियों या अखाड़ों और कोचों के खिलाफ दर्ज मुकदमों को वापस लिया जाए। फिर यह भी विचित्र है कि डब्लूएफआइ में एक अनिवार्य व्यवस्था के रूप में महिला अध्यक्ष के तहत आंतरिक शिकायत समिति होनी चाहिए थी, उसके लिए महिला खिलाड़ियों को मांग करनी पड़ी।
अब इस मसले पर कार्रवाई के लिए सरकार की ओर दिखाई गई सक्रियता को देर से सही दिशा में हुई प्रगति कहा जा सकता है। लेकिन सवाल है कि शुरू से यही सबसे उपयुक्त रास्ता होने के बावजूद सरकार को समय पर इस तरह की पहल करना जरूरी क्यों नहीं लगा। इस समूचे मामले में उठते सवालों से लेकर अदालत तक शिकायत पहुंचने, प्राथमिकी और उसमें दर्ज धाराएं बिल्कुल स्पष्ट रहीं कि इस संदर्भ में कानून के मुताबिक क्या और कैसे कदम उठाए जा सकते हैं।
लेकिन सरकार की ओर से हल तक पहुंचने का जो रास्ता अब अपनाया गया है, उसे लेकर शुरुआती दौर में अगर शिद्दत से पहल की गई होती तो एक संवेदनशील मामले में महिला पहलवानों को न्याय की मांग के लिए इस कदर जद्दोजहद से नहीं गुजरना पड़ता। सरकार के सामने भी आरोपी के खिलाफ जरूरी कदम उठाने में टालमटोल करने जैसी शिकायतें सामने आईं।
समय रहते जरूरी कार्रवाई के प्रति उदासीनता दिखाने पर सरकार सवालों के कठघरे में देखी गई। इस स्थिति से बचा जा सकता था। आंदोलनकारी महिला पहलवानों के साथ पुलिस ने जो बर्ताव किया, वह अपने आप में सरकार के रुख को बताने के लिए काफी है। अब सरकार ने अगर कानून के मुताबिक कदम उठाने का भरोसा दिया है, तो इसके प्रति उसकी इच्छाशक्ति में ईमानदारी दिखनी भी चाहिए।