पश्चिम बंगाल में राजनीति और हिंसा इस कदर एक-दूसरे से नालबद्ध हो चुके हैं कि वहां कोई मामूली चुनाव भी बिना मारपीट, गोलीबारी, हत्या के संपन्न नहीं हो पाता। वहां के पंचायत चुनावों में मतदान के दिन बड़े पैमाने पर हुई हिंसा इसका ताजा उदाहरण है। जब चुनाव की तारीख घोषित और नामांकन की प्रक्रिया शुरू हुई थी, तभी से हिंसा का सिलसिला शुरू हो गया था।

इन चुनावों में बड़े पैमाने पर हिंसा की आशंका जताई जा रही थी, जिसके मद्देनजर व्यापक सुरक्षा व्यवस्था पर जोर दिया गया। केंद्रीय बलों की तैनाती का प्रस्ताव रखा गया था, जिसे लेकर वहां के उच्च न्यायालय में भी मामला गया था। आखिरकार उच्च न्यायालय ने केंद्रीय बलों की तैनाती को मंजूरी दे दी थी। इसके तहत राज्य इकाई के सत्तर हजार सुरक्षा कर्मी और केंद्रीय बलों की छह सौ कंपनियां तैनात की गई थीं।

इसके बावजूद इतने बड़े पैमाने पर हिंसा हो गई, जिसमें बारह से अधिक लोग मारे गए और बहुत सारे घायल हो गए। अब राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू हो गया है। यह चुनाव नतीजे आने के बाद भी चलता रहेगा। निर्वाचन आयोग पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि उसने सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए कि इस तरह की हिंसक घटनाएं हो गईं।

पश्चिम बंगाल में राजनीतिक हिंसा एक सतत प्रक्रिया बन चुकी है। राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं के बीच लगातार दलगत संघर्ष देखा जाता है। चुनावों के वक्त वह सतह पर आ जाता है और वे बदले की भावना से एक दूसरे पर जानलेवा हमले करने से परहेज नहीं करते। एक चुनाव की वैमनस्यता दूसरे चुनाव तक बनी रहती है।

विधानसभा चुनाव की वैमनस्यता पंचायत चुनाव में और पंचायत चुनाव की वैमनस्यता लोकसभा चुनाव में प्रकट होती रहती है। हालांकि यह प्रवृत्ति इसी सरकार के समय की नहीं है। जब वहां वाम दलों की सरकार थी, तब भी ऐसी हिंसक घटनाएं होती थीं। मगर इस आधार पर मौजूदा सरकार की कानून-व्यवस्था संबंधी खामियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।

वाम दलों की करीब तीस सालों की सतत सत्ता के बावजूद वहां न लोगों के जीवन स्तर में कोई उल्लेखनीय सुधार नजर आया, न कानून-व्यवस्था भरोसेमंद हो पाई, तब लोगों ने सत्ता परिवर्तन का मन बनाया था और उम्मीद की जा रही थी कि ममता बनर्जी उन अपेक्षाओं पर खरी उतरेंगी। मगर निराश करने वाली बात है कि कानून-व्यवस्था में कोई सुधार नजर नहीं आया।

ममता बनर्जी ने भी राजनीतिक हिंसा की परिपाटी को उसी तरह पोसा है, जिस तरह वाम दलों ने पोसा था। वे अपने कार्यकर्ताओं की आपराधिक गतिविधियों के बचाव में खुद थाने में जाती देखी गई हैं। इससे स्पष्ट संकेत गया कि पुलिस प्रशासन सत्तापक्ष के कार्यकर्ताओं की बेजा हरकतों को नजरअंदाज करे।

पिछले लोकसभा और विधानसभा चुनावों में भी इसीलिए बड़े पैमाने पर हिंसा हुई थी कि सत्तापक्ष के कार्यकर्ताओं को प्रशासनिक संरक्षण प्राप्त था। अब पश्चिम बंगाल में स्थिति यह है कि प्रतिद्वंद्वी राजनीतिक दल भी अपने कार्यकर्ताओं को इसी तरह तैयार करते हैं। हिंसा के बल पर अगर मतदाताओं को अपने पक्ष में करके चुनाव जीत भी लिया जाए, तो आखिर लोकतंत्र कहां बचा रहता है। यह समझ से परे है कि जब सत्ताधारी दल खुद अपने कार्यकर्ताओं को लोकतांत्रिक तरीके से मतदान कराने का पाठ नहीं पढ़ा सकता, तो उससे दूसरे दलों के उपद्रवियों पर काबू पाने की कितनी उम्मीद की जा सकती है।