पहाड़ मैदानों के मौसम का मिजाज साधने में मदद करते हैं। बादलों के बरसने, हवाओं में नमी भरने, नदियों को सदानीरा बनाए रखने में पहाड़ों का बड़ा योगदान होता है। उनकी हरियाली सैलानियों का मन तो मोहती ही है, अनेक औषधीय वनस्पतियां भी सहेजती है। मैदानी भागों की कृषि काफी कुछ पहाड़ों से पोषण पाती है। मगर जलवायु परिवर्तन के चलते अब पहाड़ खुद बंजर होने की तरफ बढ़ चले हैं। उत्तराखंड में जीबी पंत कृषि एवं प्रौद्यागिकी विश्वविद्यालय के एक शोध से पता चला है कि इस वर्ष पिछले चालीस वर्षों की तुलना में वर्षा स्तर में उल्लेखनीय कमी दर्ज हुई है।

न्यूनतम तापमान में चिंताजनक वृद्धि देखी गई है, जिसके चलते तराई क्षेत्रों में फसलों के समय से पहले पकने और उत्पादन में कमी आने की आशंका गहरी हो गई है। शोध में वर्षा के स्तर, धूप की अवधि और वाष्पीकरण की दर पहले की तुलना में काफी घट गई है। इन स्थितियों में फिलहाल सुधार की कोई गुंजाइश नजर नहीं आ रही। इसी तरह इस वर्ष जम्मू-कश्मीर और हिमाचल प्रदेश के पहाड़ों पर अभी तक बर्फ नहीं गिरी है। कश्मीर के जिस गुलमर्ग इलाके में इस समय बर्फ की मोटी चादर पसरी होती थी, वहां सूखा पसरा है। यही हाल हिमाचल के पहाड़ों का है।

पहाड़ों पर इस पारिस्थितिकी असंतुलन के पीछे अलनीनो प्रभाव बड़ा कारण माना जा रहा है। मौसम में शुष्कता होने की वजह से पहाड़ों पर सूखी ठंड पड़ रही है। इससे पहाड़ी इलाकों में पहुंचे सैलानियों में तो निराशा नजर आ ही रही है, कृषि उत्पादन में कमी को लेकर भी चिंता गहराने लगी है। दरअसल, धूप के घंटों और वाष्पीकरण में कमी के चलते पहाड़ी इलाकों में बादल नहीं बन पा रहे, जिससे वहां वर्षा कम हुई है। माकूल बरसात न होने से बर्फ भी नहीं पड़ रही।

बर्फ कम पड़ेगी तो प्राकृतिक जल स्रोतों का स्तर भी घटेगा। पहले ही कई पहाड़ों की झीलों, जलकुंडों आदि में जल स्तर घटने के तथ्य सामने आ चुके हैं। ताजा अध्ययनों से यह स्थिति और चिंता बढ़ा सकती है। पहाड़ों पर बिगड़ते पारिस्थितिकी संतुलन, अतार्किक ढंग से चलाए जा रहे विकास कार्यों के कारण भंगुर पहाड़ों पर अनेक भयावह नतीजे देखे जा चुके हैं। उनसे पार पाना बड़ी चुनौती है। अब उन पर बढ़ता बंजरपन नए संकट झेलने को मजबूर कर सकता है।

बढ़ते तापमान और सर्दी की अवधि में निरंतर संकुचन से गेहूं और कई दलहनी फसलों के उत्पादन में हर वर्ष कुछ कमी दर्ज हो रही है। अनियमित और असंतुलित वर्षा के कारण धान और तिलहनी फसलों का उत्पादन भी घट रहा है। ऐसे में पहाड़ों के मौसम का बिगड़ता मिजाज मैदानी इलाकों की मुश्किलें और बढ़ाएगा। मगर विडंबना है कि रोज-रोज उठ खड़े हो रहे संकटों और उनकी वजहों की जानकारी प्रकट होने के बावजूद अपेक्षित जागरूकता कहीं नजर नहीं आती। पहाड़ों और वनों की कटाई, औद्योगिक विकास के नाम पर पारिस्थितिकी के लिहाज से संवेदनशील इलाकों में निर्माण कार्यों को छूट दी जा रही है।

विचित्र है कि सर्वोच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि पर्यावरण विभाग की इजाजत के बगैर कहीं भी विकास परियोजनाओं को मंजूरी नहीं दी जा सकती। पर्यटन को प्रोत्साहित करने के लिए हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ों को जिस प्रकार घायल कर दिया गया है, कचरा निष्पादन की चुनौतियां पैदा कर दी गई हैं, उसे भी रोकने के प्रयास नजर नहीं आते। ऐसे में संकटों का सामना कैसे किया जा सकता है!